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हाथ बढ़ाकर छू न पाऊँ,
इतना बौना कर देती हैं।
घुँघराली चन्दन-छाया में
तन खो जाता है।
मुख़े मुखड़े के इस खिले चाँद को
चुपके चूम-चूम लेतीं
अधरों पर इतरा-इतराकर
खुशबू के उपवन बो देतीं।
बँधा लाज से अल्हड़ यौवन
फगुन फागुन गाता है।
'''(15-7-1978: अरुण-मुरादाबाद 1982)'''
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