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अलसी के तेल का दिया कमरे में सारी रात दहता रहा
अपने कासनी घूँघट में से धरती धीरे-र्धीरे साँसें लेती रही
गर्म प्याले से उठती है भाप जैसे, धरा से धुआँ महता से धुआँ लहता रहा
कब अपना सिर उठाएगी घास, धरती से बाहर आएगी
कौन मेरी यह आशंका औ’ डर, गिरती ओस को बताएगा
पहले बोलेगा मुर्गा एक , ज़ोर से कुकड़ूँ-कू करके गुर्राएगा
फिर सारे मुर्गे बोल उठेंगे और सब-कुछ ख़त्म हो जाएगा ?
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