वो पगली बुतों में ख़ुदा चाहती है।
सदा मैं सच ही कहूँ वायदा वो सदा चाहती है। वो क्या शौहर नहीं आइना चाहती है।है?
उतारू है करने पे सारी ख़ताएँ,
बुझाने क्यूँ लगती है लौ कौन जाने,
चरागों चराग़ों को जब -जब हवा चाहती है।
न दो दिल के बदले में दिल, बुद्धि कहती,
मुई इश्क़ में भी नफ़ा चाहती है।
</poem>