भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"स्त्री का सोचना एकान्त में / कात्यायनी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कात्यायनी |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <Poem> न जाने क्या सूझा ए…)
 
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=कात्यायनी
 
|रचनाकार=कात्यायनी
 
|संग्रह=
 
|संग्रह=
}}
 
{{KKCatKavita‎}}
 
<Poem>
 
न जाने क्या सूझा
 
एक दिन स्त्री को
 
खेल-खेल में भागती हुई
 
भाषा में समा गई
 
छिपकर बैठ गई।
 
 
उस दिन
 
तानाशाहों को
 
नींद नहीं आई रात भर।
 
 
उस दिन
 
खेल न सके कविगण
 
अग्निपिण्ड के मानिंद
 
तपते शब्दों से।
 
 
भाषा चुप रही सारी रात।
 
 
रुद्रवीणा पर
 
कोई प्रचण्ड राग बजता रहा।
 
 
}}
 
}}
 
{{KKCatKavita‎}}
 
{{KKCatKavita‎}}

03:20, 15 अक्टूबर 2009 का अवतरण

न जाने क्या सूझा
एक दिन स्त्री को
खेल-खेल में भागती हुई
भाषा में समा गई
छिपकर बैठ गई।

उस दिन
तानाशाहों को
नींद नहीं आई रात भर।

उस दिन
खेल न सके कविगण
अग्निपिण्ड के मानिंद
तपते शब्दों से।

भाषा चुप रही सारी रात।

रुद्रवीणा पर
कोई प्रचण्ड राग बजता रहा।

केवल बच्चे
निर्भीक
गलियों में खेलते रहे।