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ठसाठस / अनूप सेठी
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|रचनाकार=अनूप सेठी
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घड़ी आज भी बजा रही है साढ़े चार
पसीने से चिपचिपाता
बुक्का फाड़कर रोने भर की जगह नहीं है बस।
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