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ठसाठस / अनूप सेठी
Kavita Kosh से
घड़ी आज भी बजा रही है साढ़े चार
यूँ शायद बज चुके हैं पौने पाँच
दफ्तरों में हर कोई व्यस्त है अपने लद्धड़पन के बावजूद
बीसियों बरसों से
खड़े खड़े कुढ़ने तक की नहीं है सोहबत
घरों में बहुत हैं झुनझुने
आटे दाल के भरे अधभरे बजबजाते कनस्तर
केलैण्डर से उड़नछू हो रहे दिन महीने बरस
मगन होके हगने तक की नहीं है मोहलत
लगेंगे चश्मे होंगे भर्ती अस्पतालों में सब एक दिन
लोकल ट्रेनों की भीड़ में एकांत है सुलभ
पसीने से चिपचिपाता
बुक्का फाड़कर रोने भर की जगह नहीं है बस।