भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पिता के नाम (एक) / अनिल जनविजय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=अनिल जनविजय
+
|रचनाकार=अनिल जनविजय  
 
|संग्रह=माँ, बापू कब आएंगे / अनिल जनविजय  
 
|संग्रह=माँ, बापू कब आएंगे / अनिल जनविजय  
}}
+
{{KKCatKavita}}
 
+
<Poem>
 
+
 
मुझे याद है पिता
 
मुझे याद है पिता
 
 
वसंत की वह कोमल सांझ
 
वसंत की वह कोमल सांझ
 
+
तुम आँगन में oैठे थे और
तुम आँगन में बैठे थे और
+
 
+
 
तुम्हारे स्मॄति-कैनवास पर
 
तुम्हारे स्मॄति-कैनवास पर
 
 
विभिन्न फूलनुमा घटनाएँ डोल रही थीं
 
विभिन्न फूलनुमा घटनाएँ डोल रही थीं
 
 
 
तुम्हारी आँखों में जलती मोमबत्ती की रोशनी थी
 
तुम्हारी आँखों में जलती मोमबत्ती की रोशनी थी
 
 
और था माँ का साँवला चेहरा
 
और था माँ का साँवला चेहरा
 
  
 
तुम्हारे कानों में गूँज रहा था
 
तुम्हारे कानों में गूँज रहा था
 
 
वह संगीत
 
वह संगीत
 
 
जिसे तुमने
 
जिसे तुमने
 
 
गाने वाली काली चिड़िया का संगीत कहा था
 
गाने वाली काली चिड़िया का संगीत कहा था
 
  
 
फिर तुमने बेतहाशा हँसने की कोशिश की थी
 
फिर तुमने बेतहाशा हँसने की कोशिश की थी
 
 
तुम्हारे गले से निकली भुरभुरी पोपली आवाज़
 
तुम्हारे गले से निकली भुरभुरी पोपली आवाज़
 
 
दूर मटमैली मीनारों से बजती
 
दूर मटमैली मीनारों से बजती
 
 
सांध्य-घंटियों के स्वर में खोकर रह गई थी
 
सांध्य-घंटियों के स्वर में खोकर रह गई थी
 
  
 
तुमने नहीं माना था तब
 
तुमने नहीं माना था तब
 
 
सफ़ेद ईश्वर का वह पवित्र आदेश
 
सफ़ेद ईश्वर का वह पवित्र आदेश
 
 
तुम तो अपने स्मॄति-शिशु को दुलारते गाने लगे थे
 
तुम तो अपने स्मॄति-शिशु को दुलारते गाने लगे थे
 
 
विस्मरण की गहन कंदराओं से फूटता
 
विस्मरण की गहन कंदराओं से फूटता
 
 
स्नेहिल समर्पण का वह गीत
 
स्नेहिल समर्पण का वह गीत
 
 
जो तुमने और माँ ने वन्य-वॄक्षों के नीचे
 
जो तुमने और माँ ने वन्य-वॄक्षों के नीचे
 
 
डूबती हरी साँझ को
 
डूबती हरी साँझ को
 
 
साथ-साथ गाया था
 
साथ-साथ गाया था
 
  
 
तुम्हारी आँखों से बहने लगी थी
 
तुम्हारी आँखों से बहने लगी थी
 
 
सपनों की अग्निल नदी
 
सपनों की अग्निल नदी
 
 
और बहती नदी के साथ तुम्हारी आँखों में
 
और बहती नदी के साथ तुम्हारी आँखों में
 
 
उतर आया था विवाह-मंडप
 
उतर आया था विवाह-मंडप
 
 
स्नेह से सटे हुए दो शरीर
 
स्नेह से सटे हुए दो शरीर
 
 
सप्तपदी के वेदमंत्र
 
सप्तपदी के वेदमंत्र
 
 
और हवनकुंड के चारों ओर घूमते
 
और हवनकुंड के चारों ओर घूमते
 
 
दो जोड़ी पाँव
 
दो जोड़ी पाँव
 
  
 
मैं विवश-सा तुम्हें देखता रहा था पिता
 
मैं विवश-सा तुम्हें देखता रहा था पिता
 
 
तुम्हारे दुख और उदासी पर सोचता हुआ
 
तुम्हारे दुख और उदासी पर सोचता हुआ
  
  
1977 में रचित
+
'''1977 में रचित'''

01:34, 13 मई 2010 का अवतरण

{{KKRachna |रचनाकार=अनिल जनविजय |संग्रह=माँ, बापू कब आएंगे / अनिल जनविजय

मुझे याद है पिता
वसंत की वह कोमल सांझ
तुम आँगन में oैठे थे और
तुम्हारे स्मॄति-कैनवास पर
विभिन्न फूलनुमा घटनाएँ डोल रही थीं
तुम्हारी आँखों में जलती मोमबत्ती की रोशनी थी
और था माँ का साँवला चेहरा

तुम्हारे कानों में गूँज रहा था
वह संगीत
जिसे तुमने
गाने वाली काली चिड़िया का संगीत कहा था

फिर तुमने बेतहाशा हँसने की कोशिश की थी
तुम्हारे गले से निकली भुरभुरी पोपली आवाज़
दूर मटमैली मीनारों से बजती
सांध्य-घंटियों के स्वर में खोकर रह गई थी

तुमने नहीं माना था तब
सफ़ेद ईश्वर का वह पवित्र आदेश
तुम तो अपने स्मॄति-शिशु को दुलारते गाने लगे थे
विस्मरण की गहन कंदराओं से फूटता
स्नेहिल समर्पण का वह गीत
जो तुमने और माँ ने वन्य-वॄक्षों के नीचे
डूबती हरी साँझ को
साथ-साथ गाया था

तुम्हारी आँखों से बहने लगी थी
सपनों की अग्निल नदी
और बहती नदी के साथ तुम्हारी आँखों में
उतर आया था विवाह-मंडप
स्नेह से सटे हुए दो शरीर
सप्तपदी के वेदमंत्र
और हवनकुंड के चारों ओर घूमते
दो जोड़ी पाँव

मैं विवश-सा तुम्हें देखता रहा था पिता
तुम्हारे दुख और उदासी पर सोचता हुआ


1977 में रचित