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उलट दो बस तुम अपनी बात,
मरूँ मैं करके अपना घात।"
:कहा तब नृप ने किसी प्रकार--
:"मरो तुम क्यों, भोगो अधिकार।
:मरूँगा तो मैं अगति-समान,
:मिलेंगे तुम्हें तीन वरदान!"
:देख ऊपर को अपने आप
:लगे नृप करने यों परिताप--
:"दैव, यह सपना है कि प्रतीति?
:यही है नर-नारी की प्रीति?
:किसीको न दें कभी वर देव;
:वचन देना छोड़ें नर-देव।
:दान में दुरुपयोग का वास,
:किया जावे किसका विश्वास?
:जिसे चिन्तामणि-माला जान
:हृदय पर दिया प्रधानस्थान;
:अन्त में लेकर यों विष-दन्त
:नागिनी निकली वह हा हन्त!
:राज्य का ही न तुझे था लोभ,
:राम पर भी था इतना क्षोभ?
:न था वह निस्पृह तेरा पुत्र?
:भरत ही था क्या मेरा पुत्र?
राम-से सुत को भी वनवास,
सत्य है यह अथवा परिहास?
सत्य है तो है सत्यानाश,
हास्य है तो है हत्या-पाश!"
प्रतिध्वनि-मिष ऊँचा प्रासाद
निरन्तर करता था अनुनाद।
पुनः बोले मुँह फेर महीप--
"राम, हा राम, वत्स, कुल-दीप!"
हो गये गद्गद वे इस वार,
तिमिरमय जान पड़ा संसार।
गृहागत चन्द्रालोक-विधान
जँचा निज भावी शव-परिधान!
सौध बन गया श्मशान-समान,
मृत्यु-सी पड़ी केकयी जान।
चिता के अंगारे-से दीप,
जलाते थे प्रज्वलित समीप!
"हाय! कल क्या होगा?" कह काँप,
रहे वे घुटनों में मुँह ढाँप।
आप से ही अपने को आज
छिपाते थे मानों नरराज!
वचन पलटें कि भेजें राम को वन में,उभय विध मृत्यु निश्चित जान कर मन मेंहुए जीवन-मरण के मध्य धृत से वे;रहे बस अर्द्ध जीवित अर्द्ध मृत-से वे।:इसी दशा में रात कटी,:छाती-सी पौ प्रात फटी।:अरुण भानु प्रतिभात हुआ,:विरुपाक्ष-सा ज्ञात हुआ!
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