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फुटकर / बेढब बनारसी

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काट लेंगे जिन्दगी हम अपनी सोयाबीन पर
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कोर्टशिप गगन में मैं खोजता था उनको जब कुञ्ज और बन में वह खेलती थी 'कैरम' एक मित्र के सदन में उनसे कहा कि थोड़ा 'मानस' का पाठ कर लो बोलीं कि मन हमारा लगता है 'बायरन' में ...........अक्ल डंकी में वह ढूंढेंगे कभी 'यूथ’ जो पाते हैं 'मंकी ग्लैंड' में......जो आये सूट में पास उनके बैठे मेरा कुर्ता फटा है और मैं हूँ नहीं खाता मलाई और मक्खनदही का बस बड़ा है और मैं हूँ खडा रहता है दरवाजा वह रोकेयह प्रियतम का चचा है और मैं हूँ मेरा छाता उठाकर चल दिए वह यह सावन की घटा है और मैं हूँ उड़ा जाता हूँ कनकोये सा बेढबयह पश्चिम की हवा है और मैं हूँ नोट: कनकौआ = पतंग ....कम से कम तो दो तरक्की हमको आती है नजर बीबियों का मुँह खुला औ बाबुओं का सर खुलाहो रही थी बात जबतक खूब बहलाते रहेमुझको रुखसत कर दिया 'ह्विस्की' का जब कंटर खुला ....हमारा घर भी कर दो आके रोशन कि तुम बे तेल बत्ती के दिया होमिठाई की नहीं है चाह 'बेढब'मजा आलू में है जो चटपटा हो ....रोज मैं मिलता गले से आपके बन गया होता जो कालर कोट का माँगते हैं लोग कविता रोज-रोजयह नहीं कहते कि 'बेढब' लो टका.......दो मेरा दिल अगर न दो अपनासूद बाज आयें हम, जो मूल मिलेराह में प्रेम के चुभे कांटे आम बोये मगर बबूल मिले ...मुझे लगता है डर भूकंप कालेज में न आ जाए एकाएक जब कभी दरजे में वह लेती है अंगडाई टमाटर सा है चेहरा और चमचम से हैं होंठ उनके 'विटामिन' औ मिठाई मिल गये हैं हमको यकजाईनशा दिल में न हो 'बेढब' तो बेलज्जत जवानी हैभला बे भंग के किस काम की होती है ठंडाई ....नहीं है हैट बाबूजी के सर पर पड़ा है झोंपड़ी पर एक छप्पर इसी को टीचरी कहते हैं 'बेढब'करो कापी 'करेक्शन' जिन्दगी भर ....बड़ी 'इंसल्ट' है मेरी जो कहना बाप का मानूँनहीं इग्लिश पढ़ी औ रौब वह इतना जमाते हैंचमकते हैं बराबर फेस औ पेटेंट शूज उनके वह काले मुँह पे अपने जब कभी 'हैजलिन' लगाते हैं .....जो 'सिविल सर्जन' ने प्रेस्क्रिप्शन लिखे, बेकार थे उनका ख़त सीने पे रखा, दर्द सब जाता रहा वह समझते थे कि मैं स्पीच देता था वहाँसुनाने वाले यह समझते थे कि चिल्लाता रहा .....उनकी तिरछी मांग, तिरछी है नजर, तिरछी भावें हम हैं सीधे आदमी फिर उनसे कैसे मेल हो ......दूर से रौनक तुम्हारी और हो जाती है कुछघाट की ब्यूटी अगर कुछ है तो गंगा पार से...खिला कर मुझको दावत कहते हैं बिल देखते जाओ ज़रा होटल के लोगों, मेरी मुश्किल देखते जाओ ....माशूक की गली में चलो देख भाल के कतवार फेंकते हैं वहाँ लोग उछाल के...दाम होता साकिया तो क्या कोई होटल न था मुफ्त पीनेवाले तेरा आसरा करते रहे थी न जब व्हिस्की तो ठर्रा ही पिलाना था मुझे कबसे तेरी मिन्नतें हम साकिया करते रहे ........लाट ने हाथ मिलाया है जो मौलाना सेरश्क पंडित को है अब वह भी मुसलमां होंगे उम्र सारी तो कटी घिसते कलम ऐ 'बेढब'आख़िरी वक्त में क्या ख़ाक पहलवां होंगे ......तुम्हें सिनेमा से कम फुरसत है, हम ट्यूशन से कम खालीचलो बस हो चुका मिलना, न तुम खाली न हम खाली  <poem>
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