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एक और रात / लाल्टू
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07:33, 24 मई 2010
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<poem>दर्द जो जिस्म की तहों में बिखरा है
उसे रातें गुजारने की आदत हो गई है
उससे भी पहले से आदत पड़ी होगी
भूखी रातों की।</poem>
अनिल जनविजय
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