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फिर / मुकेश मानस

178 bytes added, 06:13, 6 जून 2010
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फिर
 
फिर कोई निराशा
पनप रही है मेरे भीतर
फिर कोई धुआंधुआँ
भर रहा है मेरे सीने में
फिर कोई धूल
मेरी आंखें आँखें दुखा रही है
फिर कोई हताशा
चमको-चमको
खूब तेज तेज़ चमको
मेरी प्रेरणा के सितारो
मुझको इस निराशा से उबारो
 रचनाकाल : 1989
<poem>
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