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फिर / मुकेश मानस
Kavita Kosh से
फिर कोई निराशा
पनप रही है मेरे भीतर
फिर कोई धुआँ
भर रहा है मेरे सीने में
फिर कोई धूल
मेरी आँखें दुखा रही है
फिर कोई हताशा
मुझको रुला रही है
चमको-चमको
खूब तेज़ चमको
मेरी प्रेरणा के सितारो
मुझको इस निराशा से उबारो
रचनाकाल : 1989