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10:30, 1 सितम्बर 2013 के समय का अवतरण

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अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं
मेरी याद से जंग फ़रमा रहे हैं

इलाही मेरे दोस्त हों ख़ैरियत से
ये क्यूँ घर में पत्थर नहीं आ रहे हैं

बहुत ख़ुश हैं गुस्ताख़ियों पर हमारी
बज़ाहिर जो बरहम नज़र आ रहे हैं

ये कैसी हवा-ए-तरक्की चली है
दीये तो दीये दिल बुझे जा रहे हैं

बहिश्ते-तसव्वुर के जलवे हैं मैं हूँ
जुदाई सलामत मज़े आ रहे हैं

बहारों में भी मय से परहेज़ तौबा
'ख़ुमार' आप काफ़िर हुए जा रहे हैं