भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मंगल-आह्वान / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 +
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार =रामधारी सिंह "दिनकर"
 +
|संग्रह=इतिहास के आँसू / रामधारी सिंह "दिनकर"
 +
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 
'''मंगल-आह्वान'''
 
'''मंगल-आह्वान'''
 +
 
भावों के आवेग प्रबल  
 
भावों के आवेग प्रबल  
 
मचा रहे उर में हलचल।
 
मचा रहे उर में हलचल।
  
कहते, उर के बाँध तोड़
+
::कहते, उर के बाँध तोड़
स्वर-स्त्रोत्तों में बह-बह अनजान,
+
::स्वर-स्त्रोत्तों में बह-बह अनजान,
तृण, तरु, लता, अनिल, जल-थल को  
+
::तृण, तरु, लता, अनिल, जल-थल को  
छा लेंगे हम बनकर गान।
+
::छा लेंगे हम बनकर गान।
  
 
पर, हूँ विवश, गान से कैसे  
 
पर, हूँ विवश, गान से कैसे  
पंक्ति 13: पंक्ति 21:
 
कौन रागिनी गाऊँ मैं?  
 
कौन रागिनी गाऊँ मैं?  
  
बाट जोहता हूँ लाचार
+
::बाट जोहता हूँ लाचार
आओ स्वरसम्राट ! उदार
+
::आओ स्वरसम्राट ! उदार
  
 
पल भर को मेरे प्राणों में
 
पल भर को मेरे प्राणों में
पंक्ति 21: पंक्ति 29:
 
युग-युग के गायन गाओ।
 
युग-युग के गायन गाओ।
  
वे गायन, जिनके न आज तक
+
::वे गायन, जिनके न आज तक
गाकर सिरा सका जल-थल,  
+
::गाकर सिरा सका जल-थल,  
जिनकी तान-तान पर आकुल  
+
::जिनकी तान-तान पर आकुल  
सिहर-सिहर उठता उडु-दल।  
+
::सिहर-सिहर उठता उडु-दल।  
  
 
आज सरित का कल-कल, छल-छल,  
 
आज सरित का कल-कल, छल-छल,  
पंक्ति 31: पंक्ति 39:
 
पीले पत्तों का मर्मर,
 
पीले पत्तों का मर्मर,
  
जलधि-साँस, पक्षी के कलरव,
+
::जलधि-साँस, पक्षी के कलरव,
अनिल-सनन, अलि का गुन-गुन
+
::अनिल-सनन, अलि का गुन-गुन
मेरी वंशी के छिद्रों में
+
::मेरी वंशी के छिद्रों में
भर दो ये मधु-स्वर चुन चुन।
+
::भर दो ये मधु-स्वर चुन चुन।
  
 
दो आदेश, फूँक दूँ श्रृंगी,
 
दो आदेश, फूँक दूँ श्रृंगी,
पंक्ति 41: पंक्ति 49:
 
जागें सुप्त भुवन के प्राण।  
 
जागें सुप्त भुवन के प्राण।  
  
गत विभूति, भावी की आशा,  
+
::गत विभूति, भावी की आशा,  
ले युगधर्म पुकार उठे,
+
::ले युगधर्म पुकार उठे,
सिंहों की घन-अंध गुहा में
+
::सिंहों की घन-अंध गुहा में
जागृति की हुंकार उठे।  
+
::जागृति की हुंकार उठे।  
  
 
जिनका लुटा सुहाग, हृदय में
 
जिनका लुटा सुहाग, हृदय में
पंक्ति 51: पंक्ति 59:
 
की कोयल रो कूक उठे।  
 
की कोयल रो कूक उठे।  
  
प्रियदर्शन इतिहास कंठ में
+
::प्रियदर्शन इतिहास कंठ में
आज ध्वनित हो काव्य बने,  
+
::आज ध्वनित हो काव्य बने,  
वर्तमान की चित्रपटी पर
+
::वर्तमान की चित्रपटी पर
भूतकाल सम्भाव्य बने।
+
::भूतकाल सम्भाव्य बने।
  
 
जहाँ-जहाँ घन-तिमिर हृदय में
 
जहाँ-जहाँ घन-तिमिर हृदय में
पंक्ति 61: पंक्ति 69:
 
देव ! फूँक दो चिनगारी।  
 
देव ! फूँक दो चिनगारी।  
  
ऐसा दो वरदान, कला को  
+
::ऐसा दो वरदान, कला को  
कुछ भी रहे अजेय नहीं,
+
::कुछ भी रहे अजेय नहीं,
रजकण से ले पारिजात तक
+
::रजकण से ले पारिजात तक
कोई रूप अगेय नहीं।  
+
::कोई रूप अगेय नहीं।  
  
 
प्रथम खिली जो मघुर ज्योति
 
प्रथम खिली जो मघुर ज्योति
पंक्ति 71: पंक्ति 79:
 
नभ-दीपों, वनफूलों में;
 
नभ-दीपों, वनफूलों में;
  
सूर-सूर तुलसी-शशि जिसकी
+
::सूर-सूर तुलसी-शशि जिसकी
विभा यहाँ फैलाते हैं,
+
::विभा यहाँ फैलाते हैं,
जिसके बुझे कणों को पा कवि
+
::जिसके बुझे कणों को पा कवि
अब खद्योत कहाते हैं;  
+
::अब खद्योत कहाते हैं;  
  
 
उसकी विभा प्रदीप्त करे
 
उसकी विभा प्रदीप्त करे
पंक्ति 82: पंक्ति 90:
  
 
२३ दिसम्बर १९३३ ई.  -दिनकर
 
२३ दिसम्बर १९३३ ई.  -दिनकर
 +
</poem>

19:12, 17 सितम्बर 2013 के समय का अवतरण

मंगल-आह्वान

भावों के आवेग प्रबल
मचा रहे उर में हलचल।

कहते, उर के बाँध तोड़
स्वर-स्त्रोत्तों में बह-बह अनजान,
तृण, तरु, लता, अनिल, जल-थल को
छा लेंगे हम बनकर गान।

पर, हूँ विवश, गान से कैसे
जग को हाय ! जगाऊँ मैं,
इस तमिस्त्र युग-बीच ज्योति की
कौन रागिनी गाऊँ मैं?

बाट जोहता हूँ लाचार
आओ स्वरसम्राट ! उदार

पल भर को मेरे प्राणों में
ओ विराट्‌ गायक ! आओ,
इस वंशी पर रसमय स्वर में
युग-युग के गायन गाओ।

वे गायन, जिनके न आज तक
गाकर सिरा सका जल-थल,
जिनकी तान-तान पर आकुल
सिहर-सिहर उठता उडु-दल।

आज सरित का कल-कल, छल-छल,
निर्झर का अविरल झर-झर,
पावस की बूँदों की रिम-झिम
पीले पत्तों का मर्मर,

जलधि-साँस, पक्षी के कलरव,
अनिल-सनन, अलि का गुन-गुन
मेरी वंशी के छिद्रों में
भर दो ये मधु-स्वर चुन चुन।

दो आदेश, फूँक दूँ श्रृंगी,
उठें प्रभाती-राग महान,
तीनों काल ध्वनित हो स्वर में
जागें सुप्त भुवन के प्राण।

गत विभूति, भावी की आशा,
ले युगधर्म पुकार उठे,
सिंहों की घन-अंध गुहा में
जागृति की हुंकार उठे।

जिनका लुटा सुहाग, हृदय में
उनके दारुण हूक उठे,
चीखूँ यों कि याद कर ऋतुपति
की कोयल रो कूक उठे।

प्रियदर्शन इतिहास कंठ में
आज ध्वनित हो काव्य बने,
वर्तमान की चित्रपटी पर
भूतकाल सम्भाव्य बने।

जहाँ-जहाँ घन-तिमिर हृदय में
भर दो वहाँ विभा प्यारी,
दुर्बल प्राणों की नस-नस में
देव ! फूँक दो चिनगारी।

ऐसा दो वरदान, कला को
कुछ भी रहे अजेय नहीं,
रजकण से ले पारिजात तक
कोई रूप अगेय नहीं।

प्रथम खिली जो मघुर ज्योति
कविता बन तमसा-कूलों में
जो हँसती आ रही युगों से
नभ-दीपों, वनफूलों में;

सूर-सूर तुलसी-शशि जिसकी
विभा यहाँ फैलाते हैं,
जिसके बुझे कणों को पा कवि
अब खद्योत कहाते हैं;

उसकी विभा प्रदीप्त करे
मेरे उर का कोना-कोना
छू दे यदि लेखनी, धूल भी
चमक उठे बनकर सोना॥

२३ दिसम्बर १९३३ ई. -दिनकर