"क्या खोया क्या पाया / रमा द्विवेदी" के अवतरणों में अंतर
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+ | धर्म की दीवार नीचे धंस रही है॥<br><br> | ||
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+ | किन्तु हृदय की सुकुमारिता,म्रिग-मरीचका में भटकने लगा है॥<br><br> | ||
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+ | बुरादा चाय के सांचे में ढ़लने लगा है।<br> | ||
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+ | स्वार्थ जमने लगा है,परमार्थ लड़खड़ाने लगा है॥<br><br> | ||
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+ | कृतज्ञता कुम्हलाने लगी है,कृतघ्नता लहलहाने लगी है।<br> | ||
+ | स्नेह सिमटनें लगा है, वैमनस्य बढ़ने लगा है,<br> | ||
+ | विश्वास उखड़ने लगा है,संदेह जमने लगा है॥<br><br> | ||
+ | साहित्यिक उपवन में विधाओं की कोपलें फूटने लगी हैं,<br> | ||
+ | किन्तु भावपक्ष का निर्झर सूखने लगा है ।<br> | ||
+ | साहित्यिक कृतियों में वासना बसने लगी है,<br> | ||
+ | आदर्श का दम घुटने लगा है॥<br><br> | ||
+ | बांध बांधे गये,सड़कों,रेलवे लाईनों के जाल बिछाये गये,<br> | ||
+ | वायुयान उड़ाये गये,शान्ति फिर भी न मिल सकी ,<br> | ||
+ | वह न जाने कहां हवा हो गई?<br> | ||
+ | सुविधाएं तो जरूर मिली , पर दुविधाएं तो हल न हो सकी॥<br><br> | ||
+ | अर्थवाद की मीनार ऊंची उठी,<br> | ||
+ | किन्तु नैतिकता की भित्तियां लरजने लगी ।<br> | ||
+ | कारखानों की धुंआ उगलने वाली चिमनियां,<br> | ||
+ | मानव हृदय को कालिमा से ढ़कने लगी ॥<br><br> | ||
+ | वचन बद्धता से नाता टूट गया,<br> | ||
+ | वचन भंगता मान्यता पाने लगी।<br> | ||
+ | जनमानस के मदिरालय में,<br> | ||
+ | भौतिकवादी सुरा छलकने लगी॥<br><br> | ||
+ | आध्यात्मवाद का चमचमाता चषक<br> | ||
+ | चूर-चूर हो गया है ।<br> | ||
+ | वसुधैव कुटुम्बकम के गीत गानेवाले हम,<br> | ||
+ | प्रान्तीयता के जाल में उलझे हुए हैं ॥<br><br> | ||
+ | दया,क्षमा,त्याग,पर-दु:ख कातरता छोड़,<br> | ||
+ | क्रूरता, पर-पीड़ा और स्वार्थ को गले लगाया है।<br> | ||
+ | अब स्वयं निर्णय करो स्वतंत्र भारत ने ,<br> | ||
+ | क्या खोया? क्या पाया है?क्या यही हमारा सपना था??<br><br> |
10:36, 15 जून 2007 के समय का अवतरण
नगरों में औद्यॊगिक बस्तियां हंस रही हैं,
किन्तु चरित्र की दुल्हन आहें भर रही है।
विज्ञान की दीवार ऊंची उठ रही है,
धर्म की दीवार नीचे धंस रही है॥
सुविधाओं का चांद मुस्कुरा रहा है,
संयम का सूरज ढ़ल रहा है।
बुद्धि की प्रखरता प्रगति पथ पर अग्रसर है,
किन्तु हृदय की सुकुमारिता,म्रिग-मरीचका में भटकने लगा है॥
रंग रोगन जर्जर काष्ठ का काया कल्प करने लगा है,
बुरादा चाय के सांचे में ढ़लने लगा है।
सादगी फिसलने लगी है,फैशन संभलने लगा है,
स्वार्थ जमने लगा है,परमार्थ लड़खड़ाने लगा है॥
असलियत रोने लगी है, बनावट हंसने लगी है,
कृतज्ञता कुम्हलाने लगी है,कृतघ्नता लहलहाने लगी है।
स्नेह सिमटनें लगा है, वैमनस्य बढ़ने लगा है,
विश्वास उखड़ने लगा है,संदेह जमने लगा है॥
साहित्यिक उपवन में विधाओं की कोपलें फूटने लगी हैं,
किन्तु भावपक्ष का निर्झर सूखने लगा है ।
साहित्यिक कृतियों में वासना बसने लगी है,
आदर्श का दम घुटने लगा है॥
बांध बांधे गये,सड़कों,रेलवे लाईनों के जाल बिछाये गये,
वायुयान उड़ाये गये,शान्ति फिर भी न मिल सकी ,
वह न जाने कहां हवा हो गई?
सुविधाएं तो जरूर मिली , पर दुविधाएं तो हल न हो सकी॥
अर्थवाद की मीनार ऊंची उठी,
किन्तु नैतिकता की भित्तियां लरजने लगी ।
कारखानों की धुंआ उगलने वाली चिमनियां,
मानव हृदय को कालिमा से ढ़कने लगी ॥
वचन बद्धता से नाता टूट गया,
वचन भंगता मान्यता पाने लगी।
जनमानस के मदिरालय में,
भौतिकवादी सुरा छलकने लगी॥
आध्यात्मवाद का चमचमाता चषक
चूर-चूर हो गया है ।
वसुधैव कुटुम्बकम के गीत गानेवाले हम,
प्रान्तीयता के जाल में उलझे हुए हैं ॥
दया,क्षमा,त्याग,पर-दु:ख कातरता छोड़,
क्रूरता, पर-पीड़ा और स्वार्थ को गले लगाया है।
अब स्वयं निर्णय करो स्वतंत्र भारत ने ,
क्या खोया? क्या पाया है?क्या यही हमारा सपना था??