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|   | |रचनाकार=तुलसीदास  |   | |रचनाकार=तुलसीदास  | 
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  | + | * [[विनयावली / तुलसीदास / पद 21 से 30 तक / पृष्ठ 5]]  | 
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| − | <poem>
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| − | '''पद 21 से 30 तक'''
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| − | (21)
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| − | ज्मुना ज्यों ज्यों लागी बाढ़न।
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| − | त्यों त्यों सुकृत-सुभट कलि भूपहिं, निदरि लगे बहु काढ़न।1।
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| − | ज्यों ज्यों जल मलीन त्यों त्यों जमगन मुख मलीन लहै आढ़ न
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| − | तुलसिदास जगदघ जवास ज्यों अनघमेघ लगे डाढ़न।2।
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| − | (22)
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| − | स्ेाइअ सहित सनेेह देह भरि,कामधेनु कलि कासी।
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| − | समनि सोक संताप पाप रूज, सकल-सुमंगल-रासी।1।
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| − | मरजादा चहुँ ओर चरनबर, सेवत सुरपुर-बासी। 
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| − | तीरथ सब सुभ अंग रोम सिवलिंग अमित अविनासी।2। 
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| − | अंतरऐन ऐन भल, थन फल, बच्छ बेद-बिस्वासी। 
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| − | गलकंबल बरूना बिभा िजनु, लूम लसति, सरिताऽसि।3। 
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| − | दंड पानि भैरव बिषान,तलरूचि-खलगन-भयदा-सी। 
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| − | लोलदिनेस त्रिलोचन लोचन, करनघंट घंटा-सी।4। 
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| − | मनिकर्निका बदन-ससि सुंदर, सुसरि-सुख सुखमा-सी। 
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| − | स्वारथ परमारथ परिपूरन,पंचकोसि महिमा-सी।5। 
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| − | बिस्वनाथ पालक कृपालुचित7 लालति नित गिरजा-सी। 
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| − | सिद्धि, सची, सारद पूजहिं मन जोगवति रहति रमा-सी। 
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| − | पंचााच्छरी प्रान7 मुद माधव7 गब्य सुपंचनदा-सी। 
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| − | ब्रह्म-जीव-सम रामनाम जुग, आखर बिस्व बिकासी।7। 
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| − | चारितु चरिति करम कुकरम करि, मरत जीवगन घासी। 
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| − | लहत परम पद प्य पावन, जेहि चहत प्रपंच- उदासी।8। 
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| − | कहत पुरान रची केसव निज कर-करतूति कला -सी। 
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| − | तुलसी बसि हरपुरी राम जपु, जो भयो चहै सुपासी।9।
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| − | (23)
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| − |    | + |  | 
| − | सब सोच-बिमोचन चित्रकूट। कलिहरन, करन कल्यान बूट।1। 
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| − | सुचि अवनि सुहावनि आलबाल। कानन बिचित्र, बारी बिसाल।2। 
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| − | मंदाकिनि-मालिनि सदा सींच। बर बारि, बिषम नर-नारि नीच।3। 
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| − | साखा सुसृंग, भूरूह -सुपात। निरझर मधुबरद्व मृदु मलय बात।4। 
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| − | सुक,पिक, मधुकर, मुनिबर बिहारू। साधन प्रसून फल चारि चारू।5। 
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| − | भव-घोरघाम-हर सुखद छाँह। थप्यो थिर प्रभाव जानकी-नाह।6। 
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| − | साधक-सुपथिक बड़े भाग पाइ। पावत अनेक अभिमत अघाइ।7। 
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| − | रस एक, रहित-गुन-करम-काल। सिय राम लखन पालक कृपाल।8। 
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| − | तुलसी जो  राम पद चाहिय प्रेम। सेइय गिरि करि निरूपाधि नेम।9।
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| − | (24)
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| − |  
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| − | स्अब चित चेति चित्रकूटहि चलु। 
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| − | कोपित कलि, लोपित मंगल मगु, बिलसत बढ़त मोह माया-मलु।। 
  | + |  | 
| − | भूमि बिलोकु राम-पद-अंकित, बन बिलोकु रघुबर - बिहारथलु।।
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| − |  सैल-सृंग भवभंग -हेतु लखु, दलन कपट -पाखंड-दंभ-दलु। । 
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| − | जहँ जनमे जग-जनक जगतपनि, बिधि-हरि-हर परिहरि प्रपंच छलु।।
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| − | सकृत प्रबेस करत जेहि आस्त्रम, बिगत-बिषाद भये परथ नलु।।
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| − | न करू बिलंब बिचारू चारूमति, बरष पाछिले सम अगिले पलु। 
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| − | पुत्र सेा जाइ जपहि, जो जपि भे, अजर अमर हर अचइ हलाहलु।। 
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| − | रामनाम-जप जाग करत नित, मज्जत पय पावन पीवत जलु। 
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| − | करिहैं राम भावतैा मनकौ, सुख-साधन, अनयास महाफलु।ं 
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| − | कामदमनि कामता, कलपतरू से जुग-जुग जागत जगतीतलु। 
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| − | तुलसी तोहि बिसेषि बूझिये, एक प्रतिति, प्रीति एकै बलु।।
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| − |    | + |  | 
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| − | (25)
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| − |    | + |  | 
| − | जयत्यंजनी-गर्भ-अंभोति-संभूत विधु विबुध- कुल-कैरवानंद कारी। 
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| − | केसरी-चारू-लोचन चकोरक-सुखद, लोक-शोक-संतापहारी।1। 
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| − | जयति जय बालकपि केलि-कैतुक उदित-चंडकर-मंडल -ग्रासकर्ता। 
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| − | राहु-रवि- शक्र- पवि- गर्व-खर्वीकरण शरण-भंयहरण जय भुवन-भर्ता।2। 
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| − | जयति रणधीर, रघुवीरहित, देवमणि, रूद्र-अवतार, संसार-पाता। 
  | + |  | 
| − | विप्र-सुर-सिद्ध-मुनि-आशिषाकारवपुष, विमलगुण, बुद्धि-वारिधि-विधाता।3। 
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| − | जयति सुग्रीव-ऋक्षादि-रक्षण-निपुण, बालि-बलशालि-बध -मुख्यहेतू। 
  | + |  | 
| − | जलधि लंधन सिंह सिंहिका-मद-मथन, रजनिचर-नगर-उत्पात-केतू।4। 
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| − | जयति भूनन्दिनी-शोच-मोचन विपिन-दलन घननादवश विगतशंका। 
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| − | लूमलीलाऽनल-ज्वालमाला कुलित होलिका करण लंकेश-लंका।5। 
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| − | जयति सौमित्र-रघुनंदनानंदकर, ऋक्ष-कपि-कटक-संघट -विधायी। 
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| − | बद्ध-वारिधि-सेतु अमर -मंगल-हेतु, भानुकुलकेतु-रण-विजयदायी।6। 
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| − | जयति जय वज्रतनु दशन नख मुख विकट, चंड-भुजदंड तरू-शैल-पानी। 
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| − | समर-तैलिक-यंत्र तिल-तमीचर-निकर, पेरिडारे सुभट घालि घानी।7। 
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| − | जयति दशकंठ घटकर्ण-वारिधि-नाद-कदन-कारन, कालनेमि-हंता। 
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| − | अघटघटना-सुघट सुघट-विघटन विकट, भूमि-पाताल -जल-गगन-गंता।8। 
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| − | जयति विश्व- विख्यात बानैत-विरूदावली, विदुष बरनत वेद विमल बानी। 
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| − | दास तुलसी त्रास शमन सीतारमण संग शोभित राम-राजधानी।9।
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| − | (30)
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| − | जके गति है हनुमान की। 
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| − | ताकी पैज पुजि आई, यह रेखा कुलिस पषानकी।1। 
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| − | अघटित-घटन, सुघट-बिघटन, ऐसी बिरूदावलि नहिं आनकी। 
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| − | सुमिरत संकट-सोच-बिमोचन, मूरति मोद-निधानकी।2। 
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| − | तापर सानुकूल गिरिजा, हर, लषन, राम अरू जानकी। 
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| − | तुलसी कपिकी कृपा-बिलोकनि, खानि सकल कल्यानकी।3।
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