भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"विनयावली / तुलसीदास / पृष्ठ 6" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 4 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=तुलसीदास
 
|रचनाकार=तुलसीदास
}}
+
|संग्रह=विनयावली / तुलसीदास
{{KKCatKavita}}
+
}}  
[[Category:लम्बी रचना]]
+
* [[विनयावली / तुलसीदास / पद 51 से 60 तक / पृष्ठ 1]]
{{KKPageNavigation
+
* [[विनयावली / तुलसीदास / पद 51 से 60 तक / पृष्ठ 2]]
|पीछे=विनयावली() / तुलसीदास / पृष्ठ 5
+
* [[विनयावली / तुलसीदास / पद 51 से 60 तक / पृष्ठ 3]]
|आगे=विनयावली() / तुलसीदास / पृष्ठ 7
+
* [[विनयावली / तुलसीदास / पद 51 से 60 तक / पृष्ठ 4]]
|सारणी=विनयावली() / तुलसीदास  
+
* [[विनयावली / तुलसीदास / पद 51 से 60 तक / पृष्ठ 5]]
}}
+
<poem>
+
'''पद 51 से 60 तक'''
+
 
+
(57)
+
 
+
देहि सतसंग निज-अंग श्रीरंग!
+
भवभंग-कारण शरण-शोकहारी।
+
ये तु भवदंघ्रिपल्लव- समाश्रित सदा, भक्तिरत, विगतसंशय, मुरारी।1।
+
असुर,सुर नाग, नर, यक्ष, गंधर्व, खग, रजनिचर, सिद्ध, ये चापि अन्नेे।
+
संत-संसर्ग त्रेवर्गपर, परमपद, प्राप्य निःप्राप्यगति त्वयि प्रसन्ने।2।
+
वृत्र, बालि, बाण, प्रहलाद, मय, व्याध, गज, गृन्ध्र, द्विजबन्धु निजधर्मत्यागी।
+
साधुपद-सलिल-निर्धूत-कल्मष सकल, श्रव्पच- यवनादि कैवल्य-भागी।3।
+
शांत , निरपेक्ष, निर्मम,निरामय, अगुण, शब्दब्रह्मैकपर, ब्रह्मज्ञानी।
+
दक्ष, समदृक, विब अति स्वपरमति, परमरनिविरत तव चक्रपानी।4।
+
विश्व-उपकारहित व्यग्रचित सर्वदा, त्यत्तमदमन्यु, क्रत पुण्यरासी।
+
यत्र तिष्ठन्ति, तत्रैव अज शर्व हरि सहित गच्छन्ति क्षीराब्धिवासी।5।
+
वेद-प्य सिंधु, सुविचार मंदरमहा, अखिल-मुनिवृंद निर्मथनकर्ता।
+
सार सतसंगमुद्धृत्य इति निश्चिंतं वदति श्रीकृष्ण वैदर्भिभर्ता।6।
+
शोक-संदेह, भय-हर्ष , तम-तर्षगण, साध्ु-सद्युक्ति विच्छेदकारी।
+
यथा रघुनाथ-सायक निशाचर-चमू- निचय-निर्दलन-पटु-वेग-भारी।7।
+
यत्र कुत्रापि मम जन्म निजकर्मवश भ्रमत जगजोति संकट अनेकं।
+
तत्र त्वद्भक्ति, सज्जन-समागम, सदा भवतु मे राम विश्राममेकं।8।
+
प्रबल भव-जनित त्रैव्याधि-भैषज भगति, भक्त भैषज्यमद्वैतदरसी।
+
संत-भगवंत अंतर निरंतर नहीं, किमपि मति मलिन कह दासतुलसी।9।
+
 
+
(60)
+
+
देव नौमि नारायणं नरं करूणायनं, ध्यान-पारायणं,ज्ञान-मूलं।
+
अखिल संसार-उपकार- कारण, सदयहृदय, तपनिरत, प्रणतानुकूलं।1।
+
श्याम नव तामरस-दामद्युति वपुष, छवि कोटि मदनार्क अगणित प्रकाशं।
+
तरूण रमणीय राजीव-लोचन ललित, वदन-राकेश, कर-निकर-हायं।2।
+
सकल सौंदर्य-निधि, विपुल गुणधाम, विधि-वेद-बुध-शंभु-सेवित, अमानं।
+
अरूण पदकंज-मकरंद-मंदाकिनी मधुप -मुनिवृंद कुर्वन्ति पानं।3।
+
शक्र-प्रेरित घेार मदन मद-भंगकृत, क्रोधगत, बोधरत, ब्रह्मचारी।
+
मार्कण्डेय मुतिवर्यहित कौतुकी बिनहि कल्पांत प्रभु प्रलयकारी।4।
+
पुण्य वन शैलसरि बाद्रिकाश्रम सदासीन पद्मासनं, एक रूपं।
+
सिद्ध-योगींद्र-वृंदारकानंदप्रद,भद्रदायक दरस अति अनूपं।5।
+
मान मनभंग, चितभंग मद ,क्रोध लोभादि पर्वतदुर्ग, भुवन -भर्ता।
+
द्वेष -मत्सर-राग प्रबल प्रत्यूह प्रति, भूरि निर्दय, क्रूर कर्म कर्ता।6।
+
विकटतर वक्र क्षुरधार प्रमदा, तीव्र दर्प कंदर्प खर खड्गधारा।
+
धीर-गंभीर-मन-पीर-कारक, तत्र के वराका वयं विगतसारा।7।
+
परम दुर्घट पथं खल-असंगत साथ, नाथ! न्हिं हाथ वर विरति -यष्टी।
+
दर्शनारत दास,त्रसित माया-पाश, त्राहि हरित्र त्राहि हरि,दास कष्टी।8।
+
दासतुलसी दीन धर्म-संबलहीन, श्रमित अति,खेद, मति मोह नाशी।
+
देहि अवलंब न विलंब अंभोज-कर, चक्रधर-तेजबल शर्मराशी।9।
+
 
+
 
+
</poem>
+

20:08, 16 जून 2012 के समय का अवतरण