भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ऋतु वर्णन / सेनापति" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सेनापति }} Category:पद <poem> शिशिर मे ससि को, सरुप पवै सब…)
 
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
 
[[Category:पद]]
 
[[Category:पद]]
 
<poem>
 
<poem>
शिशिर मे ससि को, सरुप पवै सबिताऊ
+
              वर्षा
घाम हू मे चांदनी की दुति दमकति है ।
+
‘सेनापति’ उनए गए जल्द सावन कै ,
+
              चारिह दिसनि घुमरत भरे तोई के .
"सेनापति” होत सीतलता है सहस गुनी,  
+
सोभा सरसाने ,न बखाने जात कहूँ भांति ,
रजनी की झाई, वासर मे झलकती है ।
+
              आने हैं पहार मानो काजर कै ढोइ कै .
 +
धन सों गगन छ्यों,तिमिर सघन भयो ,
 +
              देखि न् परत मानो रवि गयो खोई कै .
 +
चारि मासि भरि स्याम निशा को भरम मानि ,
 +
              मेरी जान, याही ते रहत हरि सोई कै .
  
चाहत चकोर,सुर ओर द्रग च्होर करि,
+
            शरद
चकवा की चहाती तजि धीर धसकति है।
+
  
 +
कातिक की राति थोरी थोरी सियराति ‘सेना
 +
            पति’ है सुहाति, सुकी जीवन के गन हैं .
 +
फूले हैं कुमुद फूली मलती सघन बन ,
 +
            फूलि रहे तारे मानो मोती अगनन हैं .
 +
उदित बिमल चंद, चाँदनी छिटकि रही ,
 +
              राम को तो जस अध उरध गगन हैं .
 +
तिमी हरन भयो सेट है नरन सब ,
 +
              मानहु  जगत  छीरसागर  मगन  हैं .
 +
 +
                  हेमन्त
 +
 +
सीत को प्रबल ‘सेनापति’ कोपि चढ्यो दल ,
 +
                निबल अनल दूरि गयो सियराइ कै .
 +
हिम के समीर तेई बरखै बिखम तीर ,
 +
                रही है गरम भौन-कोननि में जाइ कै .
 +
धूम नैन बहे , लोग होत हैं अचेत तऊ,
 +
                हिय सो लगाइ रहे नेक सुलगाइ कै .
 +
मानो भीत जानि महासीत सों पसारि पानि ,
 +
              छतियाँ की छाँह राख्यो पावक छिपाइ कै.
 +
         
 +
              वसन्त
 +
 +
लाल लाल टेसू फूलि रहे हैं बिलास संग ,
 +
              स्याम रंग मयी मानो मसि में मिलाए हैं .
 +
तहाँ मधु-काज आइ बैठे मधुकर पुंज ,
 +
              मलय  पवन  उपवन - बन  धाए  हैं .
 +
‘सेनापति’ माधव महीना में पलाश तरु ,
 +
                देखि देखि भाव कविता के मन आये हैं .
 +
आधे अंग सुलगि सुलगि रहे ,आधे मानो
 +
                विरही  धन  काम  क्वैला  परचाये हैं .
 +
 +
                    ग्रीष्म
 +
 +
वृष को तरनि तेज सहसौ किरनि तपै,
 +
                ज्वालनि के जाल बिकराल बिरखत हैं .
 +
तपति धरनि जग झुरत झरनि ,सीरी,
 +
                छाँह को पकरि पंथी-पंछी बिरमत हैं
 +
‘सेनापति’ नेक दुपहरी ढरकत होत ,
 +
                घमका बिखम जो न पात खरकत हैं .
 +
मेरे जान पौन सीरी ठौर को पकरि कोनौ ,
 +
                  घरी घरी बैठी कहूँ घाम बितवत हैं .
 +
 +
                    शिशिर
 +
 +
शिशिर मे ससि को, सरुप पवै सबिताऊ
 +
                घाम हू मे चांदनी की दुति दमकति है ।
 +
"सेनापति” होत सीतलता है सहस गुनी,
 +
                रजनी की झाई, वासर मे झलकती है ।
 +
चाहत चकोर,सुर ओर द्रग छोर  करि,
 +
                चकवा की छाती तजि धीर धसकति है।
 
चन्द के भरम होत मोद हे कुमोदिनी को,  
 
चन्द के भरम होत मोद हे कुमोदिनी को,  
ससि संक पंकजिनी फुलि न सकति है।
+
                ससि संक पंकजिनी फुलि न सकति है।
 
</poem>
 
</poem>

20:57, 27 अगस्त 2012 के समय का अवतरण

              वर्षा
‘सेनापति’ उनए गए जल्द सावन कै ,
              चारिह दिसनि घुमरत भरे तोई के .
सोभा सरसाने ,न बखाने जात कहूँ भांति ,
              आने हैं पहार मानो काजर कै ढोइ कै .
धन सों गगन छ्यों,तिमिर सघन भयो ,
               देखि न् परत मानो रवि गयो खोई कै .
चारि मासि भरि स्याम निशा को भरम मानि ,
               मेरी जान, याही ते रहत हरि सोई कै .

            शरद

कातिक की राति थोरी थोरी सियराति ‘सेना
             पति’ है सुहाति, सुकी जीवन के गन हैं .
फूले हैं कुमुद फूली मलती सघन बन ,
             फूलि रहे तारे मानो मोती अगनन हैं .
उदित बिमल चंद, चाँदनी छिटकि रही ,
              राम को तो जस अध उरध गगन हैं .
तिमी हरन भयो सेट है नरन सब ,
              मानहु जगत छीरसागर मगन हैं .

                   हेमन्त

सीत को प्रबल ‘सेनापति’ कोपि चढ्यो दल ,
                निबल अनल दूरि गयो सियराइ कै .
हिम के समीर तेई बरखै बिखम तीर ,
                रही है गरम भौन-कोननि में जाइ कै .
धूम नैन बहे , लोग होत हैं अचेत तऊ,
                हिय सो लगाइ रहे नेक सुलगाइ कै .
मानो भीत जानि महासीत सों पसारि पानि ,
               छतियाँ की छाँह राख्यो पावक छिपाइ कै.
          
               वसन्त

लाल लाल टेसू फूलि रहे हैं बिलास संग ,
               स्याम रंग मयी मानो मसि में मिलाए हैं .
तहाँ मधु-काज आइ बैठे मधुकर पुंज ,
               मलय पवन उपवन - बन धाए हैं .
‘सेनापति’ माधव महीना में पलाश तरु ,
                देखि देखि भाव कविता के मन आये हैं .
आधे अंग सुलगि सुलगि रहे ,आधे मानो
                 विरही धन काम क्वैला परचाये हैं .

                    ग्रीष्म

वृष को तरनि तेज सहसौ किरनि तपै,
                ज्वालनि के जाल बिकराल बिरखत हैं .
तपति धरनि जग झुरत झरनि ,सीरी,
                 छाँह को पकरि पंथी-पंछी बिरमत हैं
‘सेनापति’ नेक दुपहरी ढरकत होत ,
                 घमका बिखम जो न पात खरकत हैं .
मेरे जान पौन सीरी ठौर को पकरि कोनौ ,
                  घरी घरी बैठी कहूँ घाम बितवत हैं .

                    शिशिर

शिशिर मे ससि को, सरुप पवै सबिताऊ
                घाम हू मे चांदनी की दुति दमकति है ।
 "सेनापति” होत सीतलता है सहस गुनी,
                 रजनी की झाई, वासर मे झलकती है ।
चाहत चकोर,सुर ओर द्रग छोर करि,
                 चकवा की छाती तजि धीर धसकति है।
चन्द के भरम होत मोद हे कुमोदिनी को,
                 ससि संक पंकजिनी फुलि न सकति है।