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"ताँका-17-32 / भावना कुँअर" के अवतरणों में अंतर

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छनती रही  
 
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चाँद और तारे भी
 
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गाते दिखे रागिनी
 
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पीर की गली
 
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पड़े फलक,पर
 
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मीलों फिर भी चली
 
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खत्म न हुआ
 
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यातना का सफ़र
 
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बरसने लगा था
 
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ओलों का भी कहर
 
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पीर की गली
 
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रिसता मन लिये
 
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क्या होगी कभी भोर !
 
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मछली जैसे
 
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बींधते हुए तुम
 
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व्यंग्य बाणों से मन
 
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नहाती रही
 
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कि क्यूँ रूठ बैठा था
 
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वो बेदर्द प्रभात
 
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कैदी सुबह
 
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अँधेरे को धकेल
 
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भागती चली आई
 
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नोंचे किसने
 
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वो मधुर कोकिला
 
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सुख-दुख कहने
 
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आसमान से
 
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बाग और बगीचे
 
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जंगल में हिरना
 
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वे देते  गए
 
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मूक सहती  गई
 
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मैं खुद को  खोकर
 
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मिलती रही
 
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गम का खारा जल
 
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घूँट-घूँट पीकर
 
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दुष्ट हवा ने
 
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बिना खता के पंछी
 
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क्यूँ हैं इसने रौंदे ?
 
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29.
 
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नीम का पेड़
 
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निबौंलियाँ,जी भर
 
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उसे, गुदगुदाएँ
 
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अप्सरा बनी
 
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रेशम की ओढ़नी
 
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पहन इतराईं
 
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गुमसुम है
 
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सदमें में शायद
 
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है भूली पहचान
 
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देख रही थी
 
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जाल के चारों ओर
 
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बेरहम शिकारी
 
बेरहम शिकारी
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09:34, 10 मई 2012 के समय का अवतरण

17.
छनती रही
रात भर चाँदनी
झूम-झूम के
चाँद और तारे भी
गाते दिखे रागिनी

18.
पीर की गली
नंगे पाँव लिये ही
तपती रेत
पड़े फलक,पर
मीलों फिर भी चली

19.
खत्म न हुआ
यातना का सफ़र
टूटी थी नाव
बरसने लगा था
ओलों का भी कहर

20.
पीर की गली
मिला, ओर न छोर
कहाँ मैं जाऊँ
रिसता मन लिये
क्या होगी कभी भोर !

21.
मछली जैसे
तड़पी आजीवन
नहीं हिचके
बींधते हुए तुम
व्यंग्य बाणों से मन

22.
नहाती रही
अँधेरे में वो रात,
समझी नहीं
कि क्यूँ रूठ बैठा था
वो बेदर्द प्रभात

23.
कैदी सुबह
बड़ी छटपटाई
मुश्किल से ही
अँधेरे को धकेल
भागती चली आई

24.
नोंचे किसने
पेड़ों से ये गहने,
कैसे आएगी
वो मधुर कोकिला
सुख-दुख कहने

25.
आसमान से
टूट पड़ा झरना
नहाने लगे
बाग और बगीचे
जंगल में हिरना

26.
वे देते गए
हर पग ठोकर
पगडंडी -सी
मूक सहती गई
मैं खुद को खोकर

27.
मिलती रही
पग-पग ठोकर
जिंदा भी रही
गम का खारा जल
घूँट-घूँट पीकर

28.
दुष्ट हवा ने
उजाड़ डाले फिर
बसे घरौंदे
बिना खता के पंछी
क्यूँ हैं इसने रौंदे ?

29.
नीम का पेड़
बहुत शरमाए
नटखट -सी
निबौंलियाँ,जी भर
उसे, गुदगुदाएँ

30.
अप्सरा बनी
दूर देश से आईं
ये तितलियाँ
रेशम की ओढ़नी
पहन इतराईं

31.
गुमसुम है
गा न पाए कोयल
मीठी -सी तान
सदमें में शायद
है भूली पहचान

32.
देख रही थी
सहमी हुई मृगी
मूक -सी बनी
जाल के चारों ओर
बेरहम शिकारी