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"जौ बिधिना अपबस करि पाऊं / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

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जौ बिधिना अपबस करि पाऊं।
 
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तौ सखि कह्यौ हौइ कछु तेरो, अपनी साध पुराऊं॥
 
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लोचन रोम-रोम प्रति मांगों पुनि-पुनि त्रास दिखाऊं।
 
लोचन रोम-रोम प्रति मांगों पुनि-पुनि त्रास दिखाऊं।
 
 
इकटक रहैं पलक नहिं लागैं, पद्धति नई चलाऊं॥
 
इकटक रहैं पलक नहिं लागैं, पद्धति नई चलाऊं॥
 
 
कहा करौं छवि-रासि स्यामघन, लोचन द्वे, नहिं ठाऊं।
 
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एते पर ये निमिष सूर , सुनि, यह दुख काहि सुनाऊं॥
 
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है। सदा खुली ही रहतीं पलक न गिरते, तो फिर भी कुछ संतोष हो जाता। एकटक देखती
 
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तो रहती। पर वह भी अब होने का नहीं।
 
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शब्दार्थ :- बिधिना =विधाता, ब्रह्मा। अपबस =अपने वश में। साध पुराऊं =इच्छा पूरी  
 
शब्दार्थ :- बिधिना =विधाता, ब्रह्मा। अपबस =अपने वश में। साध पुराऊं =इच्छा पूरी  
 
करूं। त्रास =डांट-दपट, भय। पद्धति =रीति। ठाऊं =स्थान। निमिष = पलक।
 
करूं। त्रास =डांट-दपट, भय। पद्धति =रीति। ठाऊं =स्थान। निमिष = पलक।

15:30, 23 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

राग धनाश्री


जौ बिधिना अपबस करि पाऊं।
तौ सखि कह्यौ हौइ कछु तेरो, अपनी साध पुराऊं॥
लोचन रोम-रोम प्रति मांगों पुनि-पुनि त्रास दिखाऊं।
इकटक रहैं पलक नहिं लागैं, पद्धति नई चलाऊं॥
कहा करौं छवि-रासि स्यामघन, लोचन द्वे, नहिं ठाऊं।
एते पर ये निमिष सूर , सुनि, यह दुख काहि सुनाऊं॥


भावार्थ :- `तौ सखि....तेरो' सखी, तूने कृष्ण की छवि देखने को कहा है, पर इन दो छोटी-छोटी आंखों से उस अनंत रूप राशि कौ कैसे निरखूं ? यदि विधाता को किसी तरह वश में कर सकूं, तो तेरा भी कहना सफल हो जाय और कृष्ण को देखने की मेरी लालसा भी पूरी हो जाय। `कहा करौं....ठाऊं' क्या करूं, श्यामसुंदर तो सौन्दर्य के सागर हैं, उन्हें इन दो नेत्रों में बसा सकती हूं। स्थान ही नहीं, लाचारी है। `एते पर ...सुनाऊं,' एक तो दोही आंखें, फिर पलकों का बार-बार लाना, यह और भी बला है। सदा खुली ही रहतीं पलक न गिरते, तो फिर भी कुछ संतोष हो जाता। एकटक देखती तो रहती। पर वह भी अब होने का नहीं।


शब्दार्थ :- बिधिना =विधाता, ब्रह्मा। अपबस =अपने वश में। साध पुराऊं =इच्छा पूरी करूं। त्रास =डांट-दपट, भय। पद्धति =रीति। ठाऊं =स्थान। निमिष = पलक।