भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जौ बिधिना अपबस करि पाऊं / सूरदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग धनाश्री


जौ बिधिना अपबस करि पाऊं।
तौ सखि कह्यौ हौइ कछु तेरो, अपनी साध पुराऊं॥
लोचन रोम-रोम प्रति मांगों पुनि-पुनि त्रास दिखाऊं।
इकटक रहैं पलक नहिं लागैं, पद्धति नई चलाऊं॥
कहा करौं छवि-रासि स्यामघन, लोचन द्वे, नहिं ठाऊं।
एते पर ये निमिष सूर , सुनि, यह दुख काहि सुनाऊं॥


भावार्थ :- `तौ सखि....तेरो' सखी, तूने कृष्ण की छवि देखने को कहा है, पर इन दो छोटी-छोटी आंखों से उस अनंत रूप राशि कौ कैसे निरखूं ? यदि विधाता को किसी तरह वश में कर सकूं, तो तेरा भी कहना सफल हो जाय और कृष्ण को देखने की मेरी लालसा भी पूरी हो जाय। `कहा करौं....ठाऊं' क्या करूं, श्यामसुंदर तो सौन्दर्य के सागर हैं, उन्हें इन दो नेत्रों में बसा सकती हूं। स्थान ही नहीं, लाचारी है। `एते पर ...सुनाऊं,' एक तो दोही आंखें, फिर पलकों का बार-बार लाना, यह और भी बला है। सदा खुली ही रहतीं पलक न गिरते, तो फिर भी कुछ संतोष हो जाता। एकटक देखती तो रहती। पर वह भी अब होने का नहीं।


शब्दार्थ :- बिधिना =विधाता, ब्रह्मा। अपबस =अपने वश में। साध पुराऊं =इच्छा पूरी करूं। त्रास =डांट-दपट, भय। पद्धति =रीति। ठाऊं =स्थान। निमिष = पलक।