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"विचार / रवीन्द्रनाथ ठाकुर" के अवतरणों में अंतर

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जननी का स्नेह-अश्रु झरा करता है
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ग्रास कर लेता है उनके विद्रोह शेल को अपने क्षत वक्षस्थल में.
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प्रेमिक मेरे,
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तुम्हार वह विचारालय(है)
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विनिद्र स्नेह से स्तब्ध, निःशब्द वेदना में,
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सती की पवित्र लज्जा में,
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बाट जोहते हुए प्रणय के विच्छेद की रात में,
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हे मेरे रुद्र,
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लुब्ध हैं वे, मुग्ध हैं वे(जो)लांघ कर
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बिना निमंत्रण के,
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सेंध मार कर चुरा लिया करते हैं तुम्हारा भण्डार.
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चोरी का वाह माल-दुर्बह है वह बोझ
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प्रतिक्षण
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गलन करता है उनके मर्म को
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(और उनमे उस भार को)
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शक्ति नहीं रहती है उतारने की.
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उने क्षमा करो, रूद्र मेरे.
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आँखे खोल कर दहकता हूँ(उम्हारी)वाह क्षमा उतर आती है
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प्रचंड झांझा के रूप में;
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उस आंधी में धूल में लोट जाते हैं वे,
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चोरी का प्रचंड बोझ टुकड़े-टुकड़े होकर
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उस आंधी में ना जाने कहाँ जाता है वो.
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रूद्र मेरे,
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क्षमा तुम्हारी विराजती रही है.
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विराजती रहती है.
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गरजती हुई वज्राग्नी की शिखा में
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सूर्यास्त के प्रलय लेख में,
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(लाल-लाल)रक्त की वर्षा में,
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अकस्मात(प्रकट होने वाले)संगर्ष की प्रत्यक रगड में.
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२७ दिसम्बर १९१४.

17:10, 10 सितम्बर 2012 के समय का अवतरण

हे मेरे सुन्दर,
चलते-चलते
रास्ते की मस्ती से मतवाले होकर,
वे लोग(जाने कौन हैं वे)जब तुम्हारे शरीर पर
धूल फेंक जाते हैं
तब मेरा अनन्त हाय-हाय कर उठता है,
रोकर कहता हूँ,हे मेरे सुन्दर,
आज तुम दण्डधर बनो,
(विचारक बनकर)न्याय करो.

फिर आश्चर्य से देखता हूँ,
यह क्या!
तुम्हारे न्यायालय का द्वार तो खुल ही हुआ है,
नित्य ही चल रहा है तुम्हारा न्याय विचार .

चुपचाप प्रभात का आलोक झड़ा करता है
उनके कलुष-रक्त नयनों पर;
शुभ्र वनमल्लिका की सुवास
स्पर्श करता है लालसा से उद्दीप्त निःश्वास को;
संध्या-तापसी के हाथों जलाई हुई
सप्तर्षियों की पूजा--दीपमाला
तकती रहती है उनकी उन्मत्तता की ओर--
हे सुन्दर,तुम्हारा न्यायालय (है)
पुष्प-वन में
पवित्र वायु में
तृण समूह पर(चलते रहने वाले)भ्रमर गुंजन में
तरंग चुम्बित नदी- तट पर
मर्मरित पल्लवों के जीवन में.

प्रेमिक मेरे,
घोर निर्दय हैं वे, दुर्बह है उनका बोझ,
लुक-छिप कर चक्कर काटते रहते हैं वे
चुरा लेने के लिये
तुम्हार आभरण,
सजाने के लिये अपनी नंगी वासनाओं को.
उनका आघात जब प्रेम के सर्वांग में लगता है,
(तो)मैं सह नहीं पाता,
आँसू भरी आँखों से
तुम्हें रो कर पुकारा करता हूँ--
खड्ग धारण करो प्रेमिक मेरे,
न्याय करो !
फिर अचरज से देखता हूँ,
यह क्या !
कहाँ है तुम्हारा न्यायालय ?
जननी का स्नेह-अश्रु झरा करता है
उनकी उग्रता पार,
प्रणयी का असीम विश्वास
ग्रास कर लेता है उनके विद्रोह शेल को अपने क्षत वक्षस्थल में.
प्रेमिक मेरे,
तुम्हार वह विचारालय(है)
विनिद्र स्नेह से स्तब्ध, निःशब्द वेदना में,
सती की पवित्र लज्जा में,
सखा के ह्रदय के रक्त-पात में,
बाट जोहते हुए प्रणय के विच्छेद की रात में,
आंसुओं-भरी करुणा से परिपूर्ण क्षमा के प्रभात में.


हे मेरे रुद्र,
लुब्ध हैं वे, मुग्ध हैं वे(जो)लांघ कर
तुम्हारा सिंह-द्वार,
चोरी-चोरी,
बिना निमंत्रण के,
सेंध मार कर चुरा लिया करते हैं तुम्हारा भण्डार.
चोरी का वाह माल-दुर्बह है वह बोझ
प्रतिक्षण
गलन करता है उनके मर्म को
(और उनमे उस भार को)
शक्ति नहीं रहती है उतारने की.


(तब मैं)रो-रो कर तुमसे बार-बार कहता हूँ--
उने क्षमा करो, रूद्र मेरे.
आँखे खोल कर दहकता हूँ(उम्हारी)वाह क्षमा उतर आती है
प्रचंड झांझा के रूप में;
उस आंधी में धूल में लोट जाते हैं वे,
चोरी का प्रचंड बोझ टुकड़े-टुकड़े होकर
उस आंधी में ना जाने कहाँ जाता है वो.
रूद्र मेरे,
क्षमा तुम्हारी विराजती रही है.
विराजती रहती है.
गरजती हुई वज्राग्नी की शिखा में
सूर्यास्त के प्रलय लेख में,
(लाल-लाल)रक्त की वर्षा में,
अकस्मात(प्रकट होने वाले)संगर्ष की प्रत्यक रगड में.


२७ दिसम्बर १९१४.