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"पटकथा / पृष्ठ 4 / धूमिल" के अवतरणों में अंतर

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बेचैनी थी ,रोष था<br>
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नफ़रत थी
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मगर हर आदमी अपनी ज़रूरतों के आगे
आग और आँसू और हाय का।<br>
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असहाय था।  
इस तरह एक दिन-<br>
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उसमें
जब मैं घूमते-घूमते थक चुका था<br>
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सारी चीज़ों को नये सिरे से बदलने की
मेरे खून में एक काली आँधी-<br>
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बेचैनी थी, रोष था
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लेकिन उसका गुस्सा
मेरी असफलताओं में सोये हुये<br>
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एक तथ्यहीन मिश्रण था:
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आग और आँसू और हाय का।
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इस तरह एक दिन-
अचानक ,नींद की असंख्य पर्तों में<br>
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जब मैं घूमते-घूमते थक चुका था
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मेरे खून में एक काली आँधी-
मेरी उलझनों के अँधेरे में<br>
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दौड़ लगा रही थी
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मेरी असफ़लताओं में सोये हुये
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मेरी उलझनों के अँधेरे में
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एक हमशक्ल खड़ा है
दहल जाता है<br>
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मैंने उससे पूछा- 'तुम कौन हो?
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यहाँ क्यों आये हो?
और मैं हैरान हूँ<br>
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तुम्हें क्या हुआ है?’
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‘तुमने पहचाना नहीं-मैं हिंदुस्तान हूँ
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हाँ - मैं हिंदुस्तान हूँ’,
मुझे छुओ।<br>
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मुझे जियो। मेरे साथ चलो<br>
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दहल जाता है
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कलेजा मुँह को आता है
बाहर निकलो!<br>
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और मैं हैरान हूँ
सुनो!<br>
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तुम चाहे जिसे चुनो<br>
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मेरे पास आओ
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मुझे छुओ।
मुझे लगा-आवाज़<br>
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मुझे जियो।  
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मेरे साथ चलो
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मेरा यकीन करो।  
एक अजीब-सी प्यार भरी गुर्राहट<br>
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इस दलदल से
जैसे कोई मादा भेड़िया<br>
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बाहर निकलो!
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सुनो!
साथ ही किसी छौने का सिर चबा रही है<br>
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तुम चाहे जिसे चुनो
मेरा सारा जिस्म थरथरा रहा था<br>
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मगर इसे नहीं।  
उसकी आवाज में<br>
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इसे बदलो।
असंख्य नरकों की घृणा भरी थी<br>
+
मुझे लगा- आवाज़
वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर<br>
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जैसे किसी जलते हुये कुएँ से
बोल रहा था। मगर उसकी आँख<br>
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आ रही है।
गुस्से में भी हरी थी<br>
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एक अजीब-सी प्यार भरी गुर्राहट
वह कह रहा था-<br>
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जैसे कोई मादा भेड़िया
‘तुम्हारी आँखों के चकनाचूर आईनों में<br>
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अपने छौने को दूध पिला रही है
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उसकी आवाज में
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असंख्य नरकों की घृणा भरी थी
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वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर
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मगर उसकी आँख
रास्ते में रुक गये हो<br>
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गुस्से में भी हरी थी
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वह कह रहा था-
अपने दाँतों के नीचे<br>
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खाने के आदी हो<br>
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वक्त की बदरंग छायाएँ उलटी कर रही हैं
चाहे वह सपना अथवा आज़ादी हो<br>
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और तुम पेड़ों की छाल गिनकर
अचानक ,इस तरह,क्यों चुक गये हो<br>
+
भविष्य का कार्यक्रम तैयार कर रहे हो
वह क्या है जिसने तुम्हें<br>
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तुम एक ऐसी ज़िन्दगी से गुज़र रहे हो
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जिसमें न कोई तुक है
रहना सिखलाया है?<br>
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न सुख है
क्या यह विश्वास की कमी है<br>
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तुम अपनी शापित परछाई से टकराकर
जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गयी है<br>
+
रास्ते में रुक गये हो
या कि शर्म<br>
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तुम जो हर चीज़
अब तुम्हारी सहूलियत बन गयी है<br>
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अपने दाँतों के नीचे
नहीं-सरलता की तरह इस तरह<br>
+
खाने के आदी हो
मत दौड़ो<br>
+
चाहे वह सपना अथवा आज़ादी हो
उसमें भूख और मन्दिर की रोशनी का<br>
+
अचानक, इस तरह, क्यों चुक गये हो
रिश्ता है। वह बनिये की पूँजी का<br>
+
वह क्या है जिसने तुम्हें
आधार है<br>
+
बर्बरों के सामने अदब से
मैं बार-बार कहता हूँ कि इस उलझी हुई<br>
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रहना सिखलाया है?
दुनिया में<br>
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क्या यह विश्वास की कमी है
आसानी से समझ में आने वाली चीज़<br>
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जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गयी है
सिर्फ दीवार है।<br>
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या कि शर्म
और यह दीवार अब तुम्हारी आदत का<br>
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अब तुम्हारी सहूलियत बन गयी है
हिस्सा बन गयी है<br>
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नहीं- सरलता की तरह इस तरह
इसे झटककर अलग करो<br>
+
मत दौड़ो
अपनी आदतों में<br>
+
उसमें भूख और मन्दिर की रोशनी का
फूलों की जगह पत्थर भरो<br>
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रिश्ता है। वह बनिये की पूँजी का
मासूमियत के हर तकाज़े को<br>
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आधार है
ठोकर मार दो<br>
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मैं बार-बार कहता हूँ कि इस उलझी हुई
अब वक्त आ गया है तुम उठो<br>
+
दुनिया में
और अपनी ऊब को आकार दो।<br>
+
आसानी से समझ में आने वाली चीज़
‘सुनो !<br>
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सिर्फ दीवार है।
आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ<br>
+
और यह दीवार अब तुम्हारी आदत का
जिसके आगे हर सचाई<br>
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हिस्सा बन गयी है
छोटी है। इस दुनिया में<br>
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इसे झटककर अलग करो
भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क<br>
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अपनी आदतों में
रोटी है।<br>
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फूलों की जगह पत्थर भरो
मगर तुम्हारी भूख और भाषा में<br>
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मासूमियत के हर तकाज़े को
यदि सही दूरी नहीं है<br>
+
ठोकर मार दो
तो तुम अपने-आपको आदमी मत कहो<br>
+
अब वक़्त आ गया है तुम उठो
क्योंकि पशुता -<br>
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और अपनी ऊब को आकार दो।
सिर्फ पूँछ होने की मज़बूरी नहीं है<br>
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‘सुनो!
वह आदमी को वहीं ले जाती है<br>
+
आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ
जहाँ भूख<br>
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जिसके आगे हर सचाई
सबसे पहले भाषा को खाती है<br>
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छोटी है।  
वक्त सिर्फ उसका चेहरा बिगाड़ता है<br>
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इस दुनिया में
जो अपने चेहरे की राख<br>
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भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क
दूसरों की रूमाल से झाड़ता है<br>
+
रोटी है।
जो अपना हाथ<br>
+
मगर तुम्हारी भूख और भाषा में
मैला होने से डरता है<br>
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यदि सही दूरी नहीं है
वह एक नहीं ग्यारह कायरों की<br>
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जो अपना हाथ
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वह एक नहीं ग्यारह कायरों की
 
मौत मरता है
 
मौत मरता है
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11:53, 27 सितम्बर 2024 के समय का अवतरण

देश और धर्म और नैतिकता की
दुहाई देकर
कुछ लोगों की सुविधा
दूसरों की ‘हाय’ पर सेंकते हैं
वे जिसकी पीठ ठोंकते हैं
उसकी रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है
वे मुस्कराते हैं और
दूसरे की आँख में झपटती हुई प्रतिहिंसा
करवट बदलकर सो जाती है
मैं देखता रहा…
देखता रहा…
हर तरफ ऊब थी
संशय था
नफ़रत थी
मगर हर आदमी अपनी ज़रूरतों के आगे
असहाय था।
उसमें
सारी चीज़ों को नये सिरे से बदलने की
बेचैनी थी, रोष था
लेकिन उसका गुस्सा
एक तथ्यहीन मिश्रण था:
आग और आँसू और हाय का।
इस तरह एक दिन-
जब मैं घूमते-घूमते थक चुका था
मेरे खून में एक काली आँधी-
दौड़ लगा रही थी
मेरी असफ़लताओं में सोये हुये
वहसी इरादों को
झकझोर कर जगा रही थी
अचानक, नींद की असंख्य पर्तों में
डूबते हुये मैंने देखा
मेरी उलझनों के अँधेरे में
एक हमशक्ल खड़ा है
मैंने उससे पूछा- 'तुम कौन हो?
यहाँ क्यों आये हो?
तुम्हें क्या हुआ है?’
‘तुमने पहचाना नहीं-मैं हिंदुस्तान हूँ
हाँ - मैं हिंदुस्तान हूँ’,
वह हँसता है- ऐसी हँसी कि दिल
दहल जाता है
कलेजा मुँह को आता है
और मैं हैरान हूँ
‘यहाँ आओ
मेरे पास आओ
मुझे छुओ।
मुझे जियो।
मेरे साथ चलो
मेरा यकीन करो।
इस दलदल से
बाहर निकलो!
सुनो!
तुम चाहे जिसे चुनो
मगर इसे नहीं।
इसे बदलो।
मुझे लगा- आवाज़
जैसे किसी जलते हुये कुएँ से
आ रही है।
एक अजीब-सी प्यार भरी गुर्राहट
जैसे कोई मादा भेड़िया
अपने छौने को दूध पिला रही है
साथ ही किसी छौने का सिर चबा रही है
मेरा सारा जिस्म थरथरा रहा था
उसकी आवाज में
असंख्य नरकों की घृणा भरी थी
वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर
बोल रहा था।
मगर उसकी आँख
गुस्से में भी हरी थी
वह कह रहा था-
‘तुम्हारी आँखों के चकनाचूर आईनों में
वक्त की बदरंग छायाएँ उलटी कर रही हैं
और तुम पेड़ों की छाल गिनकर
भविष्य का कार्यक्रम तैयार कर रहे हो
तुम एक ऐसी ज़िन्दगी से गुज़र रहे हो
जिसमें न कोई तुक है
न सुख है
तुम अपनी शापित परछाई से टकराकर
रास्ते में रुक गये हो
तुम जो हर चीज़
अपने दाँतों के नीचे
खाने के आदी हो
चाहे वह सपना अथवा आज़ादी हो
अचानक, इस तरह, क्यों चुक गये हो
वह क्या है जिसने तुम्हें
बर्बरों के सामने अदब से
रहना सिखलाया है?
क्या यह विश्वास की कमी है
जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गयी है
या कि शर्म
अब तुम्हारी सहूलियत बन गयी है
नहीं- सरलता की तरह इस तरह
मत दौड़ो
उसमें भूख और मन्दिर की रोशनी का
रिश्ता है। वह बनिये की पूँजी का
आधार है
मैं बार-बार कहता हूँ कि इस उलझी हुई
दुनिया में
आसानी से समझ में आने वाली चीज़
सिर्फ दीवार है।
और यह दीवार अब तुम्हारी आदत का
हिस्सा बन गयी है
इसे झटककर अलग करो
अपनी आदतों में
फूलों की जगह पत्थर भरो
मासूमियत के हर तकाज़े को
ठोकर मार दो
अब वक़्त आ गया है तुम उठो
और अपनी ऊब को आकार दो।
‘सुनो!
आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ
जिसके आगे हर सचाई
छोटी है।
इस दुनिया में
भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क
रोटी है।
मगर तुम्हारी भूख और भाषा में
यदि सही दूरी नहीं है
तो तुम अपने-आपको आदमी मत कहो
क्योंकि पशुता -
सिर्फ पूँछ होने की मज़बूरी नहीं है
वह आदमी को वहीं ले जाती है
जहाँ भूख
सबसे पहले भाषा को खाती है
वक़्त सिर्फ उसका चेहरा बिगाड़ता है
जो अपने चेहरे की राख
दूसरों की रूमाल से झाड़ता है
जो अपना हाथ
मैला होने से डरता है
वह एक नहीं ग्यारह कायरों की
मौत मरता है