भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"भारतीय समाज / भवानीप्रसाद मिश्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: कहते हैं <br> इस साल हर साल से पानी बहुत ज्यादा गिरा<br> पिछ्ले पचास वर्षों मे...)
 
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
कहते हैं <br>
+
{{KKGlobal}}
इस साल हर साल से पानी बहुत ज्यादा गिरा<br>
+
{{KKRachna
पिछ्ले पचास वर्षों में किसी को <br>
+
|रचनाकार=भवानीप्रसाद मिश्र
इतनी ज्यादा बारिश की याद नहीं है ।<br><br>
+
}}
कहते हैं हमारे घर के सामने की नालियां<br>
+
{{KKCatKavita}}
इससे पहले इतनी कभी नहीं बहीं<br>
+
<poem>
न तुम्हारे गांव की बावली का स्तर<br>
+
कहते हैं
कभी इतना ऊंचा उठा<br>
+
इस साल हर साल से पानी बहुत ज्यादा गिरा
न खाइयां कभी ऐसी भरीं , न खन्दक<br>
+
पिछ्ले पचास वर्षों में किसी को  
नरबदा कभी इतनी बढ़ी, न गन्डक ।<br><br>
+
इतनी ज्यादा बारिश की याद नहीं है।
पंचवर्षीय योजनाओं के बांध पहले नहीं थे<br>
+
 
मगर वर्षा में तब लोग एक गांव से दूर दूर के गांवों तक<br>
+
कहते हैं हमारे घर के सामने की नालियां
सिर पर सामान रख कर यों टहलते नहीं थे<br>
+
इससे पहले इतनी कभी नहीं बहीं
और फिर लोग कहते हैं <br>
+
न तुम्हारे गांव की बावली का स्तर
जिंदगी पहले के दिनों की बड़ी प्यारी थी<br>
+
कभी इतना ऊंचा उठा
सपने हो गये वे दिन जो रंगीनियों में आते थे<br>
+
न खाइयां कभी ऐसी भरीं , न खन्दक
रंगीनियों में जाते थे<br>
+
नर्मदा कभी इतनी बढ़ी, न गन्डक।
जब लोग महफिलों में बैठे बैठे <br>
+
 
रात भर पक्के गाने गाते थे<br>
+
पंचवर्षीय योजनाओं के बांध पहले नहीं थे
कम्बख़्त हैं अब के लोग, और अब के दिन वाले <br>
+
मगर वर्षा में तब लोग एक गांव से दूर दूर के गांवों तक
क्योंकि अब पहले से ज्यादा पानी गिरता है<br>
+
सिर पर सामान रख कर यों टहलते नहीं थे
और कम गाये जाते हैं पक्के गाने ।<br><br>
+
और फिर लोग कहते हैं  
और मैं सोचता हूँ, ये सब कहने वाले<br>
+
जिंदगी पहले के दिनों की बड़ी प्यारी थी
हैं शहरों के रहने वाले <br>
+
सपने हो गये वे दिन जो रंगीनियों में आते थे
इन्हें न पचास साल पहले खबर थी गांव की<br>
+
रंगीनियों में जाते थे
न आज है<br>
+
जब लोग महफिलों में बैठे बैठे  
ये शहरों का रहने वाला ही<br>
+
रात भर पक्के गाने गाते थे
जैसे भारतीय समाज है ।
+
कम्बख़्त हैं अब के लोग, और अब के दिन वाले  
 +
क्योंकि अब पहले से ज्यादा पानी गिरता है
 +
और कम गाये जाते हैं पक्के गाने।
 +
 
 +
और मैं सोचता हूँ, ये सब कहने वाले
 +
हैं शहरों के रहने वाले  
 +
इन्हें न पचास साल पहले खबर थी गांव की
 +
न आज है
 +
ये शहरों का रहने वाला ही
 +
जैसे भारतीय समाज है।
 +
</poem>

12:06, 12 मार्च 2016 के समय का अवतरण

कहते हैं
इस साल हर साल से पानी बहुत ज्यादा गिरा
पिछ्ले पचास वर्षों में किसी को
इतनी ज्यादा बारिश की याद नहीं है।

कहते हैं हमारे घर के सामने की नालियां
इससे पहले इतनी कभी नहीं बहीं
न तुम्हारे गांव की बावली का स्तर
कभी इतना ऊंचा उठा
न खाइयां कभी ऐसी भरीं , न खन्दक
न नर्मदा कभी इतनी बढ़ी, न गन्डक।

पंचवर्षीय योजनाओं के बांध पहले नहीं थे
मगर वर्षा में तब लोग एक गांव से दूर दूर के गांवों तक
सिर पर सामान रख कर यों टहलते नहीं थे
और फिर लोग कहते हैं
जिंदगी पहले के दिनों की बड़ी प्यारी थी
सपने हो गये वे दिन जो रंगीनियों में आते थे
रंगीनियों में जाते थे
जब लोग महफिलों में बैठे बैठे
रात भर पक्के गाने गाते थे
कम्बख़्त हैं अब के लोग, और अब के दिन वाले
क्योंकि अब पहले से ज्यादा पानी गिरता है
और कम गाये जाते हैं पक्के गाने।

और मैं सोचता हूँ, ये सब कहने वाले
हैं शहरों के रहने वाले
इन्हें न पचास साल पहले खबर थी गांव की
न आज है
ये शहरों का रहने वाला ही
जैसे भारतीय समाज है।