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"मित्र के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर

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(1)
 
(1)
  
कहते हो, ‘‘नीरस यह<br>
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कहते हो, ‘‘नीरस यह
बन्द करो गान-<br>
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बन्द करो गान-
कहाँ छन्द, कहाँ भाव,<br>
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कहाँ छन्द, कहाँ भाव,
कहाँ यहाँ प्राण ?<br>
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कहाँ यहाँ प्राण ?
था सर प्राचीन सरस, <br>
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था सर प्राचीन सरस,
सारस-हँसों से हँस;<br>
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सारस-हँसों से हँस;
वारिज-वारिज में बस<br>
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वारिज-वारिज में बस
रहा विवश प्यार;<br>
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रहा विवश प्यार;
जल-तरंग ध्वनि; कलकल<br>
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जल-तरंग ध्वनि; कलकल
बजा तट-मृदंग सदल;<br>
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बजा तट-मृदंग सदल;
पैंगें भर पवन कुशल<br>
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पैंगें भर पवन कुशल
गाती मल्लार।’’<br>
+
गाती मल्लार।’’
  
 
(2)
 
(2)
  
सत्य, बन्धु सत्य; वहाँ<br>
+
सत्य, बन्धु सत्य; वहाँ
नहीं अर्र-बर्र;<br>
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नहीं अर्र-बर्र;
नहीं वहाँ भेक, वहाँ<br>
+
नहीं वहाँ भेक, वहाँ
नहीं टर्र-टर्र।<br>
+
नहीं टर्र-टर्र।
एक यहीं आठ पहर<br>
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एक यहीं आठ पहर
बही पवन हहर-हहर, <br>
+
बही पवन हहर-हहर,
तपा तपन, ठहर-ठहर<br>
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तपा तपन, ठहर-ठहर
सजल कण उड़े;<br>
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सजल कण उड़े;
गये सूख भरे ताल, <br>
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गये सूख भरे ताल,
हुए रूख हरे शाल, <br>
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हुए रूख हरे शाल,
हाय रे, मयूर-व्याल<br>
+
हाय रे, मयूर-व्याल
पूँछ से जुड़े !<br>
+
पूँछ से जुड़े!
  
 
(3)
 
(3)
  
देखा कुछ इसी समय<br>
+
देखे कुछ इसी समय
दृश्य और-और<br>
+
दृश्य और-और
इसी ज्वाल से लहरे<br>
+
इसी ज्वाल से लहरे
हरे ठौर-ठौर ?<br>
+
हरे ठौर-ठौर ?
नूतन पल्लव-दल, कलि,<br>
+
नूतन पल्लव-दल, कलि,
मँडलाते व्याकुल अलि<br>
+
मँडलाते व्याकुल अलि
तनु-तन पर जाते बलि<br>
+
तनु-तन पर जाते बलि
बार-बार हार;<br>
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बार-बार हार;
बही जो सुवास मन्द मधुर भार-भरण-छन्द<br>
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बही जो सुवास मन्द  
मिली नहीं तुम्हें, बन्द<br>
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मधुर भार-भरण-छन्द
रहे, बन्धु, द्वार ?<br>
+
मिली नहीं तुम्हें, बन्द
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रहे, बन्धु, द्वार?
  
 
(4)
 
(4)
  
इसी समय झुकी आम्र-<br>
+
इसी समय झुकी आम्र-
शाखा फल-भार<br>
+
शाखा फल-भार
मिली नहीं क्या जब यह<br>
+
मिली नहीं क्या जब यह
देखा संसार ?<br>
+
देखा संसार?
उसके भीतर जो स्तव, <br>
+
उसके भीतर जो स्तव,
सुना नहीं कोई रव ?<br>
+
सुना नहीं कोई रव?
हाय दैव, दव-ही-दव<br>
+
हाय दैव, दव-ही-दव
बन्धु को मिला !<br>
+
बन्धु को मिला!
कुहरित भी पञ्चम स्वर,<br>
+
कुहरित भी पञ्चम स्वर,  
रहे बन्द कर्ण-कुहर<br>
+
रहे बन्द कर्ण-कुहर,
मन पर प्राचीन मुहर, <br>
+
मन पर प्राचीन मुहर,
हृदय पर शिला !<br>
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हृदय पर शिला!
  
 
(5)
 
(5)
  
सोचो तो क्या थी वह<br>
+
सोचो तो, क्या थी वह
भावना पवित्र, <br>
+
भावना पवित्र,
बँधा जहाँ भेद भूल<br>
+
बँधा जहाँ भेद भूल
मित्र से अमित्र।<br>
+
मित्र से अमित्र।
तुम्हीं एक रहे मोड़<br>
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तुम्हीं एक रहे मोड़
मुख, प्रिय, प्रिय मित्र छोड़;<br>
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मुख, प्रिय, प्रिय मित्र छोड़;
कहो, कहो, कहाँ होड़<br>
+
कहो, कहो, कहाँ होड़
जहाँ जोड़, प्यार ?<br>
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जहाँ जोड़, प्यार?
इसी रूप में रह स्थिर, <br>
+
इसी रूप में रह स्थिर,
इसी भाव में घिर-घिर, <br>
+
इसी भाव में घिर-घिर,
करोगे अपार तिमिर-<br>
+
करोगे अपार तिमिर-
सागर को पार ?<br>
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सागर को पार?
  
 
(6)
 
(6)
  
बही बन्धु, वायु प्रबल<br>
+
बही बन्धु, वायु प्रबल
जो, न बँध सकी;<br>
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जो, न बँध सकी;
देखते थके तुम, बहती<br>
+
देखते थके तुम, बहती
न वह न थकी।<br>
+
न वह न थकी।
समझो वह प्रथम वर्ष, <br>
+
समझो वह प्रथम वर्ष,
रुका नहीं मुक्त हर्ष, <br>
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रुका नहीं मुक्त हर्ष,
यौवन दुर्धर्ष कर्ष-<br>
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यौवन दुर्धर्ष कर्ष-
मर्ष से लड़ा;<br>
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मर्ष से लड़ा;
ऊपर मध्याह्न तपन<br>
+
ऊपर मध्याह्न तपन
तपा किया, सन्-सन्-सन्<br>
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तपा किया, सन्-सन्-सन्
हिला-झुका तरु अगणन<br>
+
हिला-झुका तरु अगणन
बही वह हवा।<br>
+
बही वह हवा।
  
 
(7)
 
(7)
  
उड़ा दी गयी जो, वह भी<br>
+
उड़ा दी गयी जो, वह भी
गयी उड़ा, <br>
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गयी उड़ा,
जली हुई आग कहो, <br>
+
जली हुई आग कहो,
कब गयी जुड़ा ?<br>
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कब गयी जुड़ा?
जो थे प्राचीन पत्र<br>
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जो थे प्राचीन पत्र
जीर्ण-शीर्ण नहीं छत्र, <br>
+
जीर्ण-शीर्ण नहीं छत्र,
झड़े हुए यत्र-तत्र<br>
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झड़े हुए यत्र-तत्र
पड़े हुए थे, <br>
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पड़े हुए थे,
उन्हीं से अपार प्यार<br>
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उन्हीं से अपार प्यार
बँधा हुआ था असार, <br>
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बँधा हुआ था असार,
मिला दुःख निराधार<br>
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मिला दुःख निराधार
तुम्हें इसलिए।<br>
+
तुम्हें इसलिए।
  
 
(8)
 
(8)
  
बही तोड़ बन्धन<br>
+
बही तोड़ बन्धन
छन्दों का निरुपाय, <br>
+
छन्दों का निरुपाय,
वही किया की फिर-फिर<br>
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वही किया की फिर-फिर
हवा ‘हाय-हाय’।<br>
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हवा ‘हाय-हाय’।
कमरे में मध्य याम, <br>
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कमरे में, मध्य याम,
करते तब तुम विराम, <br>
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करते तब तुम विराम,
रचते अथवा ललाम<br>
+
रचते अथवा ललाम
गतालोक लोक, <br>
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गतालोक लोक,
वह भ्रम मरुपथ पर की<br>
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वह भ्रम मरुपथ पर की
यहाँ-वहाँ व्यस्त फिरी, <br>
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यहाँ-वहाँ व्यस्त फिरी,
जला शोक-चिह्न, दिया<br>
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जला शोक-चिह्न, दिया
रँग विटप अशोक।<br>
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रँग विटप अशोक।
  
 
(9)
 
(9)
  
करती विश्राम, कहीं<br>
+
करती विश्राम, कहीं
नहीं मिला स्थान, <br>
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नहीं मिला स्थान,
अन्ध-प्रगति बन्ध किया<br>
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अन्ध-प्रगति बन्ध किया
सिन्धु को प्रयाण;<br>
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सिन्धु को प्रयाण;
उठा उच्च ऊर्मि-भंग-<br>
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उठा उच्च ऊर्मि-भंग-
सहसा शत-शत तरंग, <br>
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सहसा शत-शत तरंग,
क्षुब्ध, लुब्ध, नील-अंग-<br>
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क्षुब्ध, लुब्ध, नील-अंग-
अवगाहन-स्नान, <br>
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अवगाहन-स्नान,
किया वहाँ भी दुर्दम<br>
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किया वहाँ भी दुर्दम
देख तरी विघ्न विषम, <br>
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देख तरी विघ्न विषम,
उलट दिया अर्थागम<br>
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उलट दिया अर्थागम
बनकर तूफान।<br>
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बनकर तूफान।
  
 
(10)
 
(10)
  
हुई आज शान्त, प्राप्त<br>
+
हुई आज शान्त, प्राप्त
कर प्रशान्त-वक्ष;<br>
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कर प्रशान्त-वक्ष;
नहीं त्रास, अतः मित्र, <br>
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नहीं त्रास, अतः मित्र,
नहीं ‘रक्ष, ‘रक्ष’।<br>
+
नहीं ‘रक्ष, ‘रक्ष’।
उड़े हुए थे जो कण, <br>
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उड़े हुए थे जो कण,
उतरे पा शुभ वर्षण, <br>
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उतरे पा शुभ वर्षण,
शुक्ति के हृदय से बन<br>
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शुक्ति के हृदय से बन
मुक्ता झलके;<br>
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मुक्ता झलके;
लखो, दिया है पहना<br>
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लखो, दिया है पहना
किसन यह हार बना<br>
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किसने यह हार बना
भारति-उर में अपना, <br>
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भारति-उर में अपना,
देख दृग थके !<br>
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देख दृग थके!
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02:44, 20 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

(1)

कहते हो, ‘‘नीरस यह
बन्द करो गान-
कहाँ छन्द, कहाँ भाव,
कहाँ यहाँ प्राण ?
था सर प्राचीन सरस,
सारस-हँसों से हँस;
वारिज-वारिज में बस
रहा विवश प्यार;
जल-तरंग ध्वनि; कलकल
बजा तट-मृदंग सदल;
पैंगें भर पवन कुशल
गाती मल्लार।’’

(2)

सत्य, बन्धु सत्य; वहाँ
नहीं अर्र-बर्र;
नहीं वहाँ भेक, वहाँ
नहीं टर्र-टर्र।
एक यहीं आठ पहर
बही पवन हहर-हहर,
तपा तपन, ठहर-ठहर
सजल कण उड़े;
गये सूख भरे ताल,
हुए रूख हरे शाल,
हाय रे, मयूर-व्याल
पूँछ से जुड़े!

(3)

देखे कुछ इसी समय
दृश्य और-और
इसी ज्वाल से लहरे
हरे ठौर-ठौर ?
नूतन पल्लव-दल, कलि,
मँडलाते व्याकुल अलि
तनु-तन पर जाते बलि
बार-बार हार;
बही जो सुवास मन्द
मधुर भार-भरण-छन्द
मिली नहीं तुम्हें, बन्द
रहे, बन्धु, द्वार?

(4)

इसी समय झुकी आम्र-
शाखा फल-भार
मिली नहीं क्या जब यह
देखा संसार?
उसके भीतर जो स्तव,
सुना नहीं कोई रव?
हाय दैव, दव-ही-दव
बन्धु को मिला!
कुहरित भी पञ्चम स्वर,
रहे बन्द कर्ण-कुहर,
मन पर प्राचीन मुहर,
हृदय पर शिला!

(5)

सोचो तो, क्या थी वह
भावना पवित्र,
बँधा जहाँ भेद भूल
मित्र से अमित्र।
तुम्हीं एक रहे मोड़
मुख, प्रिय, प्रिय मित्र छोड़;
कहो, कहो, कहाँ होड़
जहाँ जोड़, प्यार?
इसी रूप में रह स्थिर,
इसी भाव में घिर-घिर,
करोगे अपार तिमिर-
सागर को पार?

(6)

बही बन्धु, वायु प्रबल
जो, न बँध सकी;
देखते थके तुम, बहती
न वह न थकी।
समझो वह प्रथम वर्ष,
रुका नहीं मुक्त हर्ष,
यौवन दुर्धर्ष कर्ष-
मर्ष से लड़ा;
ऊपर मध्याह्न तपन
तपा किया, सन्-सन्-सन्
हिला-झुका तरु अगणन
बही वह हवा।

(7)

उड़ा दी गयी जो, वह भी
गयी उड़ा,
जली हुई आग कहो,
कब गयी जुड़ा?
जो थे प्राचीन पत्र
जीर्ण-शीर्ण नहीं छत्र,
झड़े हुए यत्र-तत्र
पड़े हुए थे,
उन्हीं से अपार प्यार
बँधा हुआ था असार,
मिला दुःख निराधार
तुम्हें इसलिए।

(8)

बही तोड़ बन्धन
छन्दों का निरुपाय,
वही किया की फिर-फिर
हवा ‘हाय-हाय’।
कमरे में, मध्य याम,
करते तब तुम विराम,
रचते अथवा ललाम
गतालोक लोक,
वह भ्रम मरुपथ पर की
यहाँ-वहाँ व्यस्त फिरी,
जला शोक-चिह्न, दिया
रँग विटप अशोक।

(9)

करती विश्राम, कहीं
नहीं मिला स्थान,
अन्ध-प्रगति बन्ध किया
सिन्धु को प्रयाण;
उठा उच्च ऊर्मि-भंग-
सहसा शत-शत तरंग,
क्षुब्ध, लुब्ध, नील-अंग-
अवगाहन-स्नान,
किया वहाँ भी दुर्दम
देख तरी विघ्न विषम,
उलट दिया अर्थागम
बनकर तूफान।

(10)

हुई आज शान्त, प्राप्त
कर प्रशान्त-वक्ष;
नहीं त्रास, अतः मित्र,
नहीं ‘रक्ष, ‘रक्ष’।
उड़े हुए थे जो कण,
उतरे पा शुभ वर्षण,
शुक्ति के हृदय से बन
मुक्ता झलके;
लखो, दिया है पहना
किसने यह हार बना
भारति-उर में अपना,
देख दृग थके!