"माँ / मोहनजीत" के अवतरणों में अंतर
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− | माँ | + | भीगी रात का माँ को क्या पता ! |
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− | + | मैं भी जो विद्वान बना घूमता हूँ | |
− | + | इतना ही तो जानता हूँ | |
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− | मैं भी जो विद्वान बना घूमता हूँ | + | रब जीवित है! |
− | इतना ही तो जानता हूँ | + | </poem> |
− | माँ | + | |
− | रब जीवित है!< | + |
16:32, 26 जून 2017 के समय का अवतरण
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मैं उस मिट्टी में से उगा हूँ
जिसमें से माँ लोकगीत चुनती थी
हर नज्म लिखने के बाद सोचता हूँ-
क्या लिखा है?
माँ कहाँ इस तरह सोचती होगी!
गीत माँ के पोरों को छूकर फूल बनते
माथे को छूते- सवेर होती
दूध-भरी छातियों को स्पर्श करते
तो चांद निकलता
पता नहीं गीत का कितना हिस्सा
पहले का था
कितना माँ का
माँ नहाती तो शब्द ‘रुनझुन’ की तरह बजते
चलती तो एक लय बनती
माँ कितने साज़ों के नाम जानती होगी
अधिक से अधिक 'बंसरी' या 'अलग़ोजा'
बाबा(गुरु नानक) की मूरत देखकर
'रबाब' भी कह लेती थी
पर लोरी के साथ जो साज़ बजता है
और आह के साथ जो हूक निकलती है
उससे कौन-सा साज़ बना
माँ नहीं जानती थी
माँ कहाँ खोजनहार थी !
चरखा कातते-कातते सो जाती
उठती तो चक्की पर बैठ जाती
भीगी रात का माँ को क्या पता !
तारों के साथ परदेशी पिता की प्रतीक्षा करती
मैं भी जो विद्वान बना घूमता हूँ
इतना ही तो जानता हूँ
माँ साँस लेती तो लगता
रब जीवित है!