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− | [वन से स्वर की गूँज उठती है। फिर वह गूँज शब्द बनती है | + | [वन से स्वर की गूँज उठती है। फिर वह गूँज शब्द बनती है - समूहगान हो जाती है] |
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− | + | समूहगान: सूर्योदय से पहले का | |
− | + | गहरा अंधकार | |
− | + | सूना वन-प्रान्तर महाकार | |
− | + | जैसे रहस्य की | |
− | + | आकृति हो | |
− | + | या घना हो गया हो विचार। | |
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− | + | हर ओर | |
− | + | हवाएँ चलती हैं | |
− | + | या रूकती हैं - | |
− | + | उनमें है स्थिर | |
− | + | कुछ सपनों का स्वीकार | |
− | + | और वन बजता है | |
+ | वीणा के तारों-सा रह-रह : | ||
+ | सरगम | ||
+ | अतीत की यादों-सा | ||
+ | या फिर | ||
+ | भविष्य की किसी कल्पना-सा मंथर; | ||
+ | वन में वह चुपके-चुपके पलता है - | ||
+ | साँवली हवाओं के मन में | ||
+ | उजली-उजली मांसलता है। | ||
− | + | जा रहे दूर अब हैं विलाप - | |
− | + | कुत्तों की ध्वनि | |
− | + | या बीच-बीच में 'हुआ-हुआ' करते | |
− | + | अतुकान्त श्रृंगालों की पुकार। | |
− | या | + | |
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− | + | उग रहा | |
− | + | महत्त्वाकांक्षा-सा | |
− | + | सूर्योदय का मोहक कलरव | |
− | + | पर अभी | |
− | + | पड़ा है अंधकार - | |
− | है | + | आवरण अँधेरे का ओढ़े जग रही धरा। |
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− | + | विस्मय का क्षण - | |
− | + | आकृतियाँ जब अस्पष्ट पड़ीं | |
− | + | यह किसके पाँवों का सुर बजता नीरव में | |
− | + | जैसे हो कोई देता ठेका तबले पर | |
− | + | या मन में पलते असन्तोष-चिन्ताओं-सा। | |
− | यह | + | जंगल का अपना प्रान्त छोड़ |
− | + | ये कहाँ जा रहे पाँव - | |
− | + | कौन-सी राह | |
− | + | कहाँ मंजिल इनकी | |
− | + | धरती के किन अवकाशों को | |
− | + | छूने का इनका है आग्रह? | |
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− | कुछ | + | [एक आकृति वन के घने भाग से निकलकर एक ग्राम के निकट आ पहुँची है। आकृति का चेहरा-मोहरा अभी स्पष्ट नहीं है, किन्तु देह और चाल-ढाल से शक्ति का आभास होता है। दूर कुछ खेत दिखाई देते हैं। उनके पार गाँव आकार ले रहा है। पगडंडी पर चलती हुई आकृति इधर-उधर देखती है, ठिठकती है जैसे कुछ विचार कर रही हो] |
− | + | ||
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− | + | विचार-स्वर: सूर्योदय का आभास | |
+ | हवा में फिर से है। | ||
+ | कितने जंगल | ||
+ | कितनी सीमाएँ लाँघी हैं इतने दिन में | ||
+ | है याद नहीं - | ||
+ | यात्रा है लम्बी होती गयी | ||
+ | विचारों-सी। | ||
− | + | ये पाँव नहीं हैं | |
− | + | घावों की संज्ञाएँ हैं; | |
− | + | सन्तोष मुझे | |
− | + | मैं दूर छोड़ आया अपनी सीमाओं को। | |
− | + | दुष्कर अलंघ्य यह दूरी | |
− | + | मेरी मित्र बने, | |
− | + | कर पार जिसे | |
− | + | आ नहीं पाएँगे पिता-बन्धु; | |
− | + | मन को मसोसकर रह जाएँगे, | |
+ | सोचेंगे कि | ||
+ | एकलव्य हो गया शेष; | ||
+ | कुछ शोक मना | ||
+ | अन्त्येष्टि करेंगे वे मेरी - | ||
+ | उनकी पीड़ा इस नये जन्म की पोषक हो। | ||
− | + | सीमित अतीत को छोड़ | |
− | + | खोजता मैं भविष्य - | |
− | + | आकाश-धरा के पार नये आलोकों को। | |
− | + | यह सूर्योदय | |
− | + | मेरे जीवन की ज्योति बने। | |
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− | [इसके पहले कि वह वाचाल युवक और आगे बोले, एकलव्य नदी-तट | + | यह रात अनोखी |
+ | जिसने मुझे पुकारा था - | ||
+ | मेरे सपनों की संधि-स्थल | ||
+ | हो रही शेष - | ||
+ | आकार ग्रहण करता मैदानों का प्रदेश। | ||
+ | मेरी इच्छाओं-सा लम्बा-चौड़ा | ||
+ | यह हरी धरा का सुखी पाट | ||
+ | मेरे पाँवों के नीचे है | ||
+ | मेरे मन-सी | ||
+ | कलकल करती | ||
+ | यह नदी जहाँ तक जाती है | ||
+ | मेरी यात्रा की बने वही सीमा-रेखा। | ||
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+ | कुछ लोग इधर ही आते हैं | ||
+ | उनसे पूछूँ | ||
+ | मेरा गन्तव्य अभी है कितनी दूर और। | ||
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+ | [सूर्योदय की पहली आभा सभी ओर बिखरती है। आकार एक सुनहरे रूपाभ से भर जाते हैं। एक किरण एकलव्य के चेहरे पर पड़ती है। श्याम वर्ण का नवयुवक है वह। कन्धे पर धनुष-तरकश लटकाये है। माते पर बालों को बाँधती हुई एक नीले रंग की पट्टी, जिसमें कुछ पंख खुंसे हैं। कमर में एक छुरा पटके से बँधा है। नंगे पाँव। सारा शरीर जैसे लोहे के तारों से बना हुआ सुडौल-सबल, जैसे पके ताँबे में दहला हुआ। गाँव के व्यक्तियों के निकट पहुँचने पर वह उनसे पूछता है] | ||
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+ | एकलव्य: भद्रजनों ! | ||
+ | यह ग्राम कौन-सा | ||
+ | और कौन-सा यह प्रदेश; | ||
+ | यह नदी कौन-सी | ||
+ | और कहाँ तक जाती है; | ||
+ | है कितनी दूर हस्तिनापुर? | ||
+ | मेरा गन्तव्य वही नगरी। | ||
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+ | [लोग गौर से उसे देखते हैं। उनमें से एक व्यक्ति, जो एकलव्य का समायु लगता है, उसे सम्बोधित करता है] | ||
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+ | युवक: यह कुरुप्रदेश का गुरुग्राम | ||
+ | है गंगा का यह तट-प्रदेश | ||
+ | थोड़ी ही दूर यहाँ से है हस्तिनापुरी। | ||
+ | कौरव-गुरुओं का यही क्षेत्र - | ||
+ | है कृपाचार्य की जन्मभूमि। | ||
+ | उस पार नदी के वह आश्रम उनका ही है। | ||
+ | वह श्वेत पताका | ||
+ | उस आश्रम की शोभा है। | ||
+ | नगरी से पहले | ||
+ | हैं रहते गुरुवर द्रोण - | ||
+ | हैं वही सिखाते राजकुमारों को | ||
+ | अस्त्रों-शस्त्रों का संचालन। | ||
+ | उनके आश्रम पर | ||
+ | ध्वजा गेरुआ फहराती - | ||
+ | उसके आगे ही... | ||
+ | राजमहल के कंगूरे... | ||
+ | |||
+ | [इसके पहले कि वह वाचाल युवक और आगे बोले, एकलव्य नदी-तट को ओर तेजी से भाग पड़ता है। तट पर पहुँचते ही नदी में कूद पड़ता है। सब चकित उसे देखते रह जाते हैं] | ||
+ | </poem> |
04:19, 15 जुलाई 2016 के समय का अवतरण
[वन से स्वर की गूँज उठती है। फिर वह गूँज शब्द बनती है - समूहगान हो जाती है]
समूहगान: सूर्योदय से पहले का
गहरा अंधकार
सूना वन-प्रान्तर महाकार
जैसे रहस्य की
आकृति हो
या घना हो गया हो विचार।
हर ओर
हवाएँ चलती हैं
या रूकती हैं -
उनमें है स्थिर
कुछ सपनों का स्वीकार
और वन बजता है
वीणा के तारों-सा रह-रह :
सरगम
अतीत की यादों-सा
या फिर
भविष्य की किसी कल्पना-सा मंथर;
वन में वह चुपके-चुपके पलता है -
साँवली हवाओं के मन में
उजली-उजली मांसलता है।
जा रहे दूर अब हैं विलाप -
कुत्तों की ध्वनि
या बीच-बीच में 'हुआ-हुआ' करते
अतुकान्त श्रृंगालों की पुकार।
उग रहा
महत्त्वाकांक्षा-सा
सूर्योदय का मोहक कलरव
पर अभी
पड़ा है अंधकार -
आवरण अँधेरे का ओढ़े जग रही धरा।
विस्मय का क्षण -
आकृतियाँ जब अस्पष्ट पड़ीं
यह किसके पाँवों का सुर बजता नीरव में
जैसे हो कोई देता ठेका तबले पर
या मन में पलते असन्तोष-चिन्ताओं-सा।
जंगल का अपना प्रान्त छोड़
ये कहाँ जा रहे पाँव -
कौन-सी राह
कहाँ मंजिल इनकी
धरती के किन अवकाशों को
छूने का इनका है आग्रह?
[एक आकृति वन के घने भाग से निकलकर एक ग्राम के निकट आ पहुँची है। आकृति का चेहरा-मोहरा अभी स्पष्ट नहीं है, किन्तु देह और चाल-ढाल से शक्ति का आभास होता है। दूर कुछ खेत दिखाई देते हैं। उनके पार गाँव आकार ले रहा है। पगडंडी पर चलती हुई आकृति इधर-उधर देखती है, ठिठकती है जैसे कुछ विचार कर रही हो]
विचार-स्वर: सूर्योदय का आभास
हवा में फिर से है।
कितने जंगल
कितनी सीमाएँ लाँघी हैं इतने दिन में
है याद नहीं -
यात्रा है लम्बी होती गयी
विचारों-सी।
ये पाँव नहीं हैं
घावों की संज्ञाएँ हैं;
सन्तोष मुझे
मैं दूर छोड़ आया अपनी सीमाओं को।
दुष्कर अलंघ्य यह दूरी
मेरी मित्र बने,
कर पार जिसे
आ नहीं पाएँगे पिता-बन्धु;
मन को मसोसकर रह जाएँगे,
सोचेंगे कि
एकलव्य हो गया शेष;
कुछ शोक मना
अन्त्येष्टि करेंगे वे मेरी -
उनकी पीड़ा इस नये जन्म की पोषक हो।
सीमित अतीत को छोड़
खोजता मैं भविष्य -
आकाश-धरा के पार नये आलोकों को।
यह सूर्योदय
मेरे जीवन की ज्योति बने।
यह रात अनोखी
जिसने मुझे पुकारा था -
मेरे सपनों की संधि-स्थल
हो रही शेष -
आकार ग्रहण करता मैदानों का प्रदेश।
मेरी इच्छाओं-सा लम्बा-चौड़ा
यह हरी धरा का सुखी पाट
मेरे पाँवों के नीचे है
मेरे मन-सी
कलकल करती
यह नदी जहाँ तक जाती है
मेरी यात्रा की बने वही सीमा-रेखा।
कुछ लोग इधर ही आते हैं
उनसे पूछूँ
मेरा गन्तव्य अभी है कितनी दूर और।
[सूर्योदय की पहली आभा सभी ओर बिखरती है। आकार एक सुनहरे रूपाभ से भर जाते हैं। एक किरण एकलव्य के चेहरे पर पड़ती है। श्याम वर्ण का नवयुवक है वह। कन्धे पर धनुष-तरकश लटकाये है। माते पर बालों को बाँधती हुई एक नीले रंग की पट्टी, जिसमें कुछ पंख खुंसे हैं। कमर में एक छुरा पटके से बँधा है। नंगे पाँव। सारा शरीर जैसे लोहे के तारों से बना हुआ सुडौल-सबल, जैसे पके ताँबे में दहला हुआ। गाँव के व्यक्तियों के निकट पहुँचने पर वह उनसे पूछता है]
एकलव्य: भद्रजनों !
यह ग्राम कौन-सा
और कौन-सा यह प्रदेश;
यह नदी कौन-सी
और कहाँ तक जाती है;
है कितनी दूर हस्तिनापुर?
मेरा गन्तव्य वही नगरी।
[लोग गौर से उसे देखते हैं। उनमें से एक व्यक्ति, जो एकलव्य का समायु लगता है, उसे सम्बोधित करता है]
युवक: यह कुरुप्रदेश का गुरुग्राम
है गंगा का यह तट-प्रदेश
थोड़ी ही दूर यहाँ से है हस्तिनापुरी।
कौरव-गुरुओं का यही क्षेत्र -
है कृपाचार्य की जन्मभूमि।
उस पार नदी के वह आश्रम उनका ही है।
वह श्वेत पताका
उस आश्रम की शोभा है।
नगरी से पहले
हैं रहते गुरुवर द्रोण -
हैं वही सिखाते राजकुमारों को
अस्त्रों-शस्त्रों का संचालन।
उनके आश्रम पर
ध्वजा गेरुआ फहराती -
उसके आगे ही...
राजमहल के कंगूरे...
[इसके पहले कि वह वाचाल युवक और आगे बोले, एकलव्य नदी-तट को ओर तेजी से भाग पड़ता है। तट पर पहुँचते ही नदी में कूद पड़ता है। सब चकित उसे देखते रह जाते हैं]