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सो सब सपने की सम्पति सम अब न लखाहीं।
 
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तासु निवासी जन की सब भाँतिन सों अवनति॥
 
तासु निवासी जन की सब भाँतिन सों अवनति॥
 
अपनेहीं घर रह्यो जासु उन्नति को कारन।
 
अपनेहीं घर रह्यो जासु उन्नति को कारन।
ताही के अनुरूप कियो छबि यानैं धारन॥
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ताही के अनुरूप कियो छबि या मैं धारन॥
 
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12:38, 2 फ़रवरी 2016 के समय का अवतरण

सो सब सपने की सम्पति सम अब न लखाहीं।
कहूँ कछू हू वा साँचे सुख की परछाहीं॥
अब नहिं बरसागम मैं वैसी आँधी आवैं।
नहिं घन अठवारन लौं वैसी झरी लगावैं॥
नहिं वैसो जाड़ा बसन्त नहिं ग्रीसम हूँ तस।
आवत मनहिं लुभावत हरखावत आगे कस॥
नहिं वैसे लखि परत शस्य लहरत खेतन मैं।
नहिं बन मैं वह शोभा, नहिं विनोद जन मन मैं॥
अद्भुत उलट फेर दिखरायो समय बदलि रंग।
मनहुँ देसहू वृद्ध भयो निज बृद्ध पने संग॥
ताहू मैं यह गाँव की परत लखि अति दुर्गति।
तासु निवासी जन की सब भाँतिन सों अवनति॥
अपनेहीं घर रह्यो जासु उन्नति को कारन।
ताही के अनुरूप कियो छबि या मैं धारन॥