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(लक्ष्मीशंकर जी की हाइकु)
 
 
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दौड़े बदहवास
 
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03:02, 3 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण

आठों पहर
दौड़े बदहवास
महानगर।

जनतंत्र में
बचा तंत्र ही तंत्र
खो गए जन।

सबसे खुश
वो जो नहीं जानता
खुशियाँ क्या हैं।

परिचित हूँ
जीवन के अंत से
किंतु जिऊँगा।

उत्सव है यह
जीवन काटो नहीं
जीवन जियो।

संभावनाएँ
जैसे बीज में बंद
विशाल वृक्ष।

सब पराए
फिर भी है ये भ्रम
सब अपने।

सपना सही
जी तो लिए ही कुछ
खुशी के पल।

की बग़ावत
नीव के पत्थरों ने
ढहे महल।

विजेता है वो
जिसने बाज़ी नहीं
दिल जीता है।

चुने भेड़ों ने
वोट के माध्यम से
स्वयं शिकारी।

क्या पा लिया था
ये तब जाना, जब
उसे खो दिया