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"कवि की वासना / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

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पहले सके छू होठ मेरे
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काम के धव्ज मत्त फहरे,
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चपल उच्छृंखल करों ने
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जो किया उत्पात उस दिन,
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कामिनी के कंच-कलश से
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दीप रवि-शशि-तारकों ने
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देख, पर, पाया न को‌ई
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स्वप्न वे सुकुमार सुंदर
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जो पलक पर कर निछावर
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थी ग‌ई मधु यामिनी वह;
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यह समाधि बनी हु‌ई है
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यह न शयनागार मेरा!
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आज मिट्टी से घिरा हूँ
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सोमरस जो पी चुका है
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आज उसके हाथ पानी,
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होठ प्यालों पर टिके तो
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थे विवश इसके लिये वे,
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आज है मन, किन्तु मानी;
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मैं नहीं हूँ देह-धर्मों से  
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बिधा, जग, जान ले तू,
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तन विकृत हो जाये लेकिन
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मन सदा अविकार मेरा!
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निष्परिश्रम छोड़ जिनको
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मोह लेता विश्व भर को,
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मानवों को, सुर-असुर को,
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वृद्ध ब्रह्मा, विष्णु, हर को,
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भंग कर देता तपस्या
भंग कर देता तपस्या<br>
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सिद्ध, ऋषि, मुनि सत्तमों की
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ही दिये थे पंचशर को;
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शक्ति रख कुछ पास अपने
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ही दिया यह दान मैंने,
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जीत पा‌एगा इन्हीं से
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आज क्या मन मार मेरा!
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प्राण प्राणों से सकें मिल
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किस तरह, दीवार है तन,
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काल है घड़ियां न गिनता,
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बेड़ियों का शब्द झन-झन
बेड़ियों का शब्द झन-झन<br>
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वेद-लोकाचार प्रहरी
वेद-लोकाचार प्रहरी<br>
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ताकते हर चाल मेरी,
ताकते हर चाल मेरी,<br>
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बद्ध इस वातावरण में
बद्ध इस वातावरण में<br>
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क्या करे अभिलाष यौवन!
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अल्पतम इच्छा यहां
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मेरी बनी बंदी पड़ी है,
मेरी बनी बंदी पड़ी है,<br>
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विश्व क्रीडास्थल नहीं रे
विश्व क्रीडास्थल नहीं रे<br>
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विश्व कारागार मेरा!
विश्व कारागार मेरा!<br>
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कह रहा जग वासनामय  
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थी तृषा जब शीत जल की
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खा लिये अंगार मैंने,
खा लिये अंगार मैंने,<br>
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चीथड़ों से उस दिवस था
चीथड़ों से उस दिवस था<br>
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कर लिया श्रृंगार मैंने
कर लिया श्रृंगार मैंने<br>
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राजसी पट पहनने को
राजसी पट पहनने को<br>
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जब हु‌ई इच्छा प्रबल थी,
जब हु‌ई इच्छा प्रबल थी,<br>
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चाह-संचय में लुटाया
चाह-संचय में लुटाया<br>
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था भरा भंडार मैंने;
था भरा भंडार मैंने;<br>
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वासना जब तीव्रतम थी
वासना जब तीव्रतम थी<br>
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बन गया था संयमी मैं,
बन गया था संयमी मैं,<br>
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है रही मेरी क्षुधा ही
है रही मेरी क्षुधा ही<br>
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सर्वदा आहार मेरा!
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प्रेम की मेरी कहानी,
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कौन हूँ मैं, जो रहेगी  
कौन हूं मैं, जो रहेगी <br>
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विश्व में मेरी निशानी?  
विश्व में मेरी निशानी? <br>
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क्या किया मैंने नही जो <br>
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कर चुका संसार अबतक?  
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वृद्ध जग को क्यों अखरती  
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है क्षणिक मेरी जवानी?  
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मैं छिपाना जानता तो  
मैं छिपाना जानता तो <br>
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20:56, 9 मई 2014 के समय का अवतरण

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!



सृष्टि के प्रारंभ में
मैने उषा के गाल चूमे,
बाल रवि के भाग्य वाले
दीप्त भाल विशाल चूमे,
प्रथम संध्या के अरुण दृग
चूम कर मैने सुला‌ए,
तारिका-कलि से सुसज्जित
नव निशा के बाल चूमे,
वायु के रसमय अधर
पहले सके छू होठ मेरे
मृत्तिका की पुतलियो से
आज क्या अभिसार मेरा?
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!



विगत-बाल्य वसुंधरा के
उच्च तुंग-उरोज उभरे,
तरु उगे हरिताभ पट धर
काम के धव्ज मत्त फहरे,
चपल उच्छृंखल करों ने
जो किया उत्पात उस दिन,
है हथेली पर लिखा वह,
पढ़ भले ही विश्व हहरे;
प्यास वारिधि से बुझाकर
भी रहा अतृप्त हूँ मैं,
कामिनी के कंच-कलश से
आज कैसा प्यार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!



इन्द्रधनु पर शीश धरकर
बादलों की सेज सुखकर
सो चुका हूँ नींद भर मैं
चंचला को बाहों में भर,
दीप रवि-शशि-तारकों ने
बाहरी कुछ केलि देखी,
देख, पर, पाया न को‌ई
स्वप्न वे सुकुमार सुंदर
जो पलक पर कर निछावर
थी ग‌ई मधु यामिनी वह;
यह समाधि बनी हु‌ई है
यह न शयनागार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!



आज मिट्टी से घिरा हूँ
पर उमंगें हैं पुरानी,
सोमरस जो पी चुका है
आज उसके हाथ पानी,
होठ प्यालों पर टिके तो
थे विवश इसके लिये वे,
प्यास का व्रत धार बैठा;
आज है मन, किन्तु मानी;
मैं नहीं हूँ देह-धर्मों से
बिधा, जग, जान ले तू,
तन विकृत हो जाये लेकिन
मन सदा अविकार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!



निष्परिश्रम छोड़ जिनको
मोह लेता विश्व भर को,
मानवों को, सुर-असुर को,
वृद्ध ब्रह्मा, विष्णु, हर को,
भंग कर देता तपस्या
सिद्ध, ऋषि, मुनि सत्तमों की
वे सुमन के बाण मैंने,
ही दिये थे पंचशर को;
शक्ति रख कुछ पास अपने
ही दिया यह दान मैंने,
जीत पा‌एगा इन्हीं से
आज क्या मन मार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!



प्राण प्राणों से सकें मिल
किस तरह, दीवार है तन,
काल है घड़ियां न गिनता,
बेड़ियों का शब्द झन-झन
वेद-लोकाचार प्रहरी
ताकते हर चाल मेरी,
बद्ध इस वातावरण में
क्या करे अभिलाष यौवन!
अल्पतम इच्छा यहां
मेरी बनी बंदी पड़ी है,
विश्व क्रीडास्थल नहीं रे
विश्व कारागार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!



थी तृषा जब शीत जल की
खा लिये अंगार मैंने,
चीथड़ों से उस दिवस था
कर लिया श्रृंगार मैंने
राजसी पट पहनने को
जब हु‌ई इच्छा प्रबल थी,
चाह-संचय में लुटाया
था भरा भंडार मैंने;
वासना जब तीव्रतम थी
बन गया था संयमी मैं,
है रही मेरी क्षुधा ही
सर्वदा आहार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!



कल छिड़ी, होगी ख़तम कल
प्रेम की मेरी कहानी,
कौन हूँ मैं, जो रहेगी
विश्व में मेरी निशानी?
क्या किया मैंने नही जो
कर चुका संसार अबतक?
वृद्ध जग को क्यों अखरती
है क्षणिक मेरी जवानी?
मैं छिपाना जानता तो
जग मुझे साधू समझता,
शत्रु मेरा बन गया है
छल-रहित व्यवहार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!