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"छंद 242 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज" के अवतरणों में अंतर

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छप्पय
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मनहरन घनाक्षरी
(मंगलाचरण)
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(पुनः वसंत-वर्णन)
  
प्रति पद जामैं होत, ध्यान राधा-माधव कौ।
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फेरि वैसैं सुरभि-समीर सरसान लागे, फेरि वैसैं बेलि मधु-भारन उनै गई।
पढ़त, सुनत, चित-गुनत, जाहि डर रहै न भव कौ॥
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फेरि वैसैं चाँह कै चकोर चहुँ बोले फेरि, फेरि बैसी क्वैलिया की कूकनि चहूँ भई॥
रसमै अतिसुख माँनि, रसिक-जन सौं सुख माँनो।
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‘द्विजदेव’ फेरि वैसैं गुनी भौंर-भौरैं फेरि वैसौ ही समैं आयौ आनँद-सुधामई।
निज मति की अनुहारि, जाहि रचि दीन्ह्यौं बाँनी॥
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फेरि वैसैं अंगन उमंग अधिकाँने फेरि वैसैं हीं कछूक मति मेरी भोरी ह्वै गई॥
‘द्विजदेव’ सींचि मधु-बैन सौं, कियै जासु परकास भुव।
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सुभता ‘सिँगार-लतिका’ बिषै, तृतिय ‘सुमन’ अवतार हुव॥
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भावार्थ: इस छप्पय में श्लेषालंकार की रीति से कवि ग्रंथ के खंडों के संबंध का परिचय देता है और विशेष बात यह है कि-संवत्, मास और तिथि को भी प्रकाशित करता है जबकि यह ग्रंथ समाप्त हुआ था इस ग्रंथ का आरंभ कवि ने ‘चैत्र कृष्ण प्रतिपदा’ संवत् ‘उन्नीस सौ चार’ को किया और संवत् उन्नीस सौ पाँच’ की फाल्गुनी ‘पूर्णिमा’ को मृगया के ब्याज से वन में वसंतकालीन सुखमा देख कवि का चित्त फिर लहराया कि श्रीराधा के ‘नख-शिख’ का वर्णन करे, जिसको उसने दूसरे ही दिन अर्थात् ‘चैत्र कृष्ण प्रतिपदा’ को आरंभ कर एक महीने पीछे यानी ‘वैशाख कृष्ण प्रतिपदा’ संवत् ‘उन्नीस सौ छह’ को समाप्त किया।
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भावार्थ: यहाँ तक कवि ने  ‘शारदा’ के शिक्षानुसार अनेक हावभाव, लीला-विलासादि का वर्णन किया; तदुपरांत जैसे वसंत के आगमन को देख, प्रथम सुमन में कवि की बुद्धि चकित व स्तंभित हुई थी कि यह सब कैसा गोरखधंधा है और उस समय ‘भगवती भारती’ ने अपने सदुपदेश से कवि को निर्देश किया था कि तुम इस भ्रमजाल में कहाँ तक पड़ोगे? ऋतुराज ‘वसंत’ वृंदावन में आकर श्री ‘नंद-नंदन’ तथा ‘वृषभानुनंदिनी’ के लीलार्थ वन को सुसज्जित कर रहा है, ऐसे उनके अनेक अनुचर हैं, प्रत्येक की महिमा कहाँ तक कोई कह सकता है; इन सब व्यर्थ जंजालों को छोड़ उसी मनोहर ‘दंपती’ की लीला का वर्णन करो, जिससे लोक-परलोक दोनों में सफलता हो। तद्नुसार यह सब ‘लीला’ कहते-कहते एक वर्ष व्यतीत हो गया पर लीलाओं का अंत कवि को न मिला, तब अकस्मात् कवि के चित्त में यह भावना उत्पन्न हुई कि जिनकी ‘अनंतलीला’ कहते-कहते इतना समय व्यतीत हुआ, फिर भी मैं समाप्त करने में असमर्थ ही रहा, उन (राधारानी) का रूप-लावण्य कैसा होगा? जिनके प्रेम के वशीभूत भगवान् रसिकशिरोमणि आनंदकंद ‘व्रजचंद’ हैं। निदान ऐसे सद्विचार का उद्गार होते ही विघ्नकारी ‘वसंत’ ने अपना चमत्कार दिखलाकर पुनः भ्रमजाल में ‘कवि’ की मति को फसाया, जिसको कवि यों कहता है कि पूर्ववत् पुनः सुगंधित समीर बहने लगे, वैसे ही लता समूह मधु (पुष्प रस व मद्य) भाराक्रांत हो झुक गया, फिर चकोर वैसे ही चहकने लगे और कोकिल-कलाप चतुर्दिक कूकने लगे; फिर वैसे ही मन को लहरानेवाला समय आ गया तथा मेरे प्रत्यंग में उत्साह का आधिक्य फिर हुआ, जिससे मेरी बुद्धि कुछ भोरी हो गई अर्थात् मद्यपान करनेवालों के बीच में पड़ने से स्वाभाविक बुद्धि में विपर्यय का होना संभव है।
 
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मुख्यार्थ: जिसके प्रतिछंद से ‘राधा-माधव’ का ध्यान हो और जिसे पढ़ते-सुनते और मनन करते, भव-बाधा से निवृत्ति हो, क्योंकि यह भगवद्गुणानुवाद है, जो ग्रंथ में रस से परिपूर्ण है- सुखपूर्वक रसिकजनों के सुखार्थ, जिसको सरस्वती ने अपनी बुद्धि के अनुसार करना चाहा उसी शृंगार की लता में मेरे अमृतरूपी वचनों के सिंचन करनेसे तीसरा सुमन लगा अर्थात् खंड व अध्याय प्रारंभ हुआ।
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लक्ष्यार्थ: जिस प्रतिपदा में राजा-माधव अर्थात् वैशाख मास में, अधव, असित, यानी कृष्णपक्ष का ध्यान होता है (माधव शब्द में संधि है) और जिसकी कीर्ति के पढ़ने, सुनने तथा मनन करने से संसार का भय व्याप्त नहीं होता अर्थात् वैशाख कृष्ण प्रतिपदा, जिसमें कच्छपरूप धारण कर भगवान् ने देवताओं को अभय दिया, रसिकजनों से बड़ी प्रीति करके अति सुखपूर्वक रसमय अर्थात षण्मय (6) अंक माना, फिर जिसको अपनी गति के अनुसार वाणी ने रचा अर्थात् आकाश जिसमें शब्द की गति होती है, यानी शून्य। कवि कहता है कि मधु वचन के अर्थों से सिंचित कर जिसको मैंने भुवन में विख्यात किया। मधु के वाच्यार्थ नव (नौ) हैं। जैसे-
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”मधु बसंत मधु चैत्र, नभ, मधु मदिरा, मकरंद।
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मधु जल, मधु पय, मधु सुधा, मधु सूदन, गोबिंद॥“
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अतएवं नौ का अंक रखना कवि को अभीष्ट है। ऐसी शुभ ‘शृंगार लतिका’ में तिसके पीछे फिर सुमन लगा अर्थात् अर्थात् सुंदर मन लगा इस प्रकार-‘अंकानां वामतो गतिः।’ की रीति से संवत् ‘उन्नीस सौ वैशाख प्रतिपदा’ लब्ध होता है।
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16:07, 3 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

मनहरन घनाक्षरी
(पुनः वसंत-वर्णन)

फेरि वैसैं सुरभि-समीर सरसान लागे, फेरि वैसैं बेलि मधु-भारन उनै गई।
फेरि वैसैं चाँह कै चकोर चहुँ बोले फेरि, फेरि बैसी क्वैलिया की कूकनि चहूँ भई॥
‘द्विजदेव’ फेरि वैसैं गुनी भौंर-भौरैं फेरि वैसौ ही समैं आयौ आनँद-सुधामई।
फेरि वैसैं अंगन उमंग अधिकाँने फेरि वैसैं हीं कछूक मति मेरी भोरी ह्वै गई॥

भावार्थ: यहाँ तक कवि ने ‘शारदा’ के शिक्षानुसार अनेक हावभाव, लीला-विलासादि का वर्णन किया; तदुपरांत जैसे वसंत के आगमन को देख, प्रथम सुमन में कवि की बुद्धि चकित व स्तंभित हुई थी कि यह सब कैसा गोरखधंधा है और उस समय ‘भगवती भारती’ ने अपने सदुपदेश से कवि को निर्देश किया था कि तुम इस भ्रमजाल में कहाँ तक पड़ोगे? ऋतुराज ‘वसंत’ वृंदावन में आकर श्री ‘नंद-नंदन’ तथा ‘वृषभानुनंदिनी’ के लीलार्थ वन को सुसज्जित कर रहा है, ऐसे उनके अनेक अनुचर हैं, प्रत्येक की महिमा कहाँ तक कोई कह सकता है; इन सब व्यर्थ जंजालों को छोड़ उसी मनोहर ‘दंपती’ की लीला का वर्णन करो, जिससे लोक-परलोक दोनों में सफलता हो। तद्नुसार यह सब ‘लीला’ कहते-कहते एक वर्ष व्यतीत हो गया पर लीलाओं का अंत कवि को न मिला, तब अकस्मात् कवि के चित्त में यह भावना उत्पन्न हुई कि जिनकी ‘अनंतलीला’ कहते-कहते इतना समय व्यतीत हुआ, फिर भी मैं समाप्त करने में असमर्थ ही रहा, उन (राधारानी) का रूप-लावण्य कैसा होगा? जिनके प्रेम के वशीभूत भगवान् रसिकशिरोमणि आनंदकंद ‘व्रजचंद’ हैं। निदान ऐसे सद्विचार का उद्गार होते ही विघ्नकारी ‘वसंत’ ने अपना चमत्कार दिखलाकर पुनः भ्रमजाल में ‘कवि’ की मति को फसाया, जिसको कवि यों कहता है कि पूर्ववत् पुनः सुगंधित समीर बहने लगे, वैसे ही लता समूह मधु (पुष्प रस व मद्य) भाराक्रांत हो झुक गया, फिर चकोर वैसे ही चहकने लगे और कोकिल-कलाप चतुर्दिक कूकने लगे; फिर वैसे ही मन को लहरानेवाला समय आ गया तथा मेरे प्रत्यंग में उत्साह का आधिक्य फिर हुआ, जिससे मेरी बुद्धि कुछ भोरी हो गई अर्थात् मद्यपान करनेवालों के बीच में पड़ने से स्वाभाविक बुद्धि में विपर्यय का होना संभव है।