Last modified on 14 अक्टूबर 2017, at 19:11

"देख रहा हूँ / मनोज जैन मधुर" के अवतरणों में अंतर

 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=मनोज जैन मधुर
+
|रचनाकार=मनोज जैन 'मधुर'
}}{{KKCatKavita}}
+
}}
 
{{KKCatNavgeet}}
 
{{KKCatNavgeet}}
 
<poem>
 
<poem>
पंक्ति 51: पंक्ति 51:
 
पश्चिम के मंतर,
 
पश्चिम के मंतर,
 
रटते देख रहा हूँ
 
रटते देख रहा हूँ
 
 
</poem>
 
</poem>

19:11, 14 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

चाँद सरीखा
मैं अपने को,
घटते देख रहा हूँ
धीरे-धीरे
सौ हिस्सों में,
बंटते देख रहा हूँ

तोड़ पुलों को
बना लिए हैं
हमने बेढ़व टीले
देख रहा हूँ
संस्कृति के
नयन हुए हैं गीले
नई सदी को
परम्परा से
कटते देख रहा हूँ

अधुनातन
शैली से पूछें
क्या खोया क्या पाया
कठपुतली
से नाच रहे हम
नचा रही है छाया
घर घर में ज्वाला
मुखियों को
फटते देख रहा हूँ

तन मन सब कुछ
हुआ विदेशी
फिर भी शोक नहीं है।
बोली वाणी
सोच नदारद
अपना लोक नहीं है।
कृत्रिम शोध से
शुद्ध बोध को
हटते देख रहा हूँ

मेरा मैं टकरा
टकरा कर,
घाट घाट पर टूटा
हर कंकर में
शंकर वाला
चिंतन पीछे छूटा
पूरब को
पश्चिम के मंतर,
रटते देख रहा हूँ