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"विक्षोभ / राहुल कुमार 'देवव्रत'" के अवतरणों में अंतर

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वह मैं ही रहा होऊंगा  
 
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अलाव में जलते रोएं की मानिंद  
 
अलाव में जलते रोएं की मानिंद  
हड्डियों पर अपनी पकड़ ढीली करता मांस का लोथड़ा
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कि हड्डियों पर अपनी पकड़ ढीली करता मांस का लोथड़ा
 
हवा में उलीच रहा है एक अजीब सी चिरायँध  
 
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शव को कंधे पर ढ़ो गति तक पहुंचा  
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झुंड में खड़ा मैं  
 
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नेपथ्य और स्वप्न के मध्य खड़े मौन को सुनता तो हूँ
 
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कंकड़ की चुभन को महसूस कर सकता हूं  
 
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आकाश से झरते तारों की सैकड़ो स्याह रातों को
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काटा है मैंने ......जागकर  
 
काटा है मैंने ......जागकर  
 
उनींदा आंखों में रोशन थे  
 
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झल्लाता तो था  
 
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किंतु बरसों तक समझ न सका  
 
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शबेहिज्र में वो दुर्गंध भी बड़ी भारी होती है  
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शबेहिज्र में वो दुर्गंध भी बड़ी भारी होती है
 
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12:47, 3 जुलाई 2018 के समय का अवतरण

वह मैं ही रहा होऊंगा
अलाव में जलते रोएं की मानिंद

कि हड्डियों पर अपनी पकड़ ढीली करता मांस का लोथड़ा
हवा में उलीच रहा है एक अजीब सी चिरायँध

शव को कंधे पर ढ़ो ...गति तक पहुंचा
झुंड में खड़ा मैं
नेपथ्य और स्वप्न के मध्य खड़े मौन को सुनता तो हूँ
किंतु संजो कर रखने के पात्र नहीं हैं मेरे पास

श्रांत सदृश इंतजार का बोझ
पीठ पर लिए
नदी के पार मेड़ पर खड़ा
उन बेचैन क्षणों का गवाह मैं और मेरा एकांत
धूप की तपिश से रेत हुई जाती मिट्टी पर
कंकड़ की चुभन को महसूस कर सकता हूं

आकाश से झरते तारों की सैकड़ो स्याह रातों को
काटा है मैंने ......जागकर
उनींदा आंखों में रोशन थे
ख्वाब के सैकडों मकान
तुम्हारी यादों से बिना थके बात करता मैं
करवट लेते क्षणों में
ओस से भीगे बिछौने की चिपचिपाहट पर
झल्लाता तो था
किंतु बरसों तक समझ न सका
शबेहिज्र में वो दुर्गंध भी बड़ी भारी होती है