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बेगुनाहों को सताता हुक्मराँ भी बन रहा
क्रूरता ऐसी दिखाता हुक्मराँ भी बन रहा
सब समझते हैं कि उसके दिल में काला चोर है
रात को वो दिन बताता हुक्मराँ भी बन रहा
सिर्फ़ सत्ता के लिए यूँ खूँ का प्यासा हो गया
हमको आपस में लड़ाता हुक्मराँ भी बन रहा
 
आदमी है आदमी की तरह जीना सीख ले
हद भी अपनी भूल जाता हुक्मराँ भी बन रहा
 
हम ग़रीबों की कमाई लूट कर ले जा रहा
जुल्म भी हम पर ही ढाता हुक्मराँ भी बन रहा
 
क्या कसूर है उस परिंदे का कभी यह सोच तो
तीर तू उस पर चलाता हुक्मराँ भी बन रहा
</poem>
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