भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बेगुनाहों को सताता हुक्मराँ भी बन रहा / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
बेगुनाहों को सताता हुक्मराँ भी बन रहा
क्रूरता ऐसी दिखाता हुक्मराँ भी बन रहा
सब समझते हैं कि उसके दिल में काला चोर है
रात को वो दिन बताता हुक्मराँ भी बन रहा
सिर्फ़ सत्ता के लिए यूँ खूँ का प्यासा हो गया
हमको आपस में लड़ाता हुक्मराँ भी बन रहा
आदमी है आदमी की तरह जीना सीख ले
हद भी अपनी भूल जाता हुक्मराँ भी बन रहा
हम ग़रीबों की कमाई लूट कर ले जा रहा
जुल्म भी हम पर ही ढाता हुक्मराँ भी बन रहा
क्या कसूर है उस परिंदे का कभी यह सोच तो
तीर तू उस पर चलाता हुक्मराँ भी बन रहा