भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"निर्वासित अकेलापन / आलोक श्रीवास्तव-२" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-2 }} <poem> तुम्हारी मां को चिंता है ...)
 
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-2
+
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-
 +
|संग्रह=वेरा, उन सपनों की कथा कहो! / आलोक श्रीवास्तव-२
 
}}
 
}}
<poem>  
+
{{KKCatKavita}}
+
<Poem>  
 
तुम्हारी मां को चिंता है तुम्हारे भविष्य की  
 
तुम्हारी मां को चिंता है तुम्हारे भविष्य की  
 
कभी उन्होंने प्रेम किया था  
 
कभी उन्होंने प्रेम किया था  

10:56, 10 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

 
तुम्हारी मां को चिंता है तुम्हारे भविष्य की
कभी उन्होंने प्रेम किया था
और एवज में मिली
कठोर और अकेली जिंदगी
दुख के दिन मिले, हताशा और कड़वाहट

वे नहीं जानतीं
कोई तुम्हें प्यार करने लगा है
कोई न जाने कब
तुम्हारे सिरहाने वसंत रख आता है
और अपने सारे वजूद में
तुम्हारे विछोह का दर्द लिये राह-गली
तुम्हारी उम्र की तमाम लड़कियों में
तुम्हें ढूंढता फिरता है
तुम भी नहीं जानतीं कि
कोई तुम्हें प्यार करने लगा है

तुम्हारी मां जब तुम्हारी आंखों में देखती होंगी
तो क्या बीस बरस की वह लड़की भी दिखती होगी
जो किसी से टूट कर प्यार करती थी

जानता हूं अगर कभी उस लड़की की छाया भी
वो देख लेती होंगी तो तुम्हें
अनजान बावड़ियों, निर्जन नदी और सूनी कब्रों के पास
न जाने की ताकीद करती होंगी

और तुम भी तो नहीं जानती होंगी कि
इन्हीं जगहों पर कोई
समूचा एक मौसम लिये बैठा होगा
सिर्फ इसलिये कि
बस तुम्हारी एक लट भर संवार दे
तुम्हारे दुपट्टे का एक कोर चुपके से बस एक बार छू भर ले

तुम्हारी मां नहीं जानतीं
कि कोई तुम्हें प्यार करने लगा है
और उसके हिस्से आये हैं
दुख के दिन, निर्वासित अकेलापन
और कठोर जिंदगी ।