भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"राही से / प्रभाकर माचवे" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
छो ("राही से / प्रभाकर माचवे" सुरक्षित कर दिया [edit=sysop:move=sysop])
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
कवि: [[प्रभाकर माचवे]]
+
{{KKGlobal}}
[[Category:कविताएँ]]
+
{{KKRachna
[[Category:प्रभाकर माचवे]]
+
|रचनाकार=प्रभाकर माचवे
 +
}}
 +
{{KKCatGeet}}
 +
<poem>
 +
इस मुसाफ़िरी का कुछ न ठिकाना भइया !
 +
याँ हार बन गया अदना दाना, भइया ।
 +
:है पता न कितनी और दूर है मंज़िल
 +
हम ने तो जाना केवल जाना, भइया !
  
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
+
तकरार न करना जाना है एकाकी
 +
हमराह बचेगा कौन भला अब बाक़ी
 +
:जब सम्बल भी सब एक-एक कर छुटता
 +
बस बची एक झाँकी उन नक़्शे-पा की ।
  
इस मुसाफ़िरी का कुछ न ठिकाना भैया !<br>
+
छूट चले राह में नए-पुराने साथी
याँ हार बन गया अदना दाना, भैया ।<br>
+
मिट गई मार्गदर्शक यह कम्पित बाती
:है पता न कितनी और दूर है मंज़िल<br>
+
:नंगी प्रकृति वीरान भयावह आगे
हम ने तो जाना केवल जाना भैया !<br><br>
+
मैं जाता हूँ, आओ, हो जिस की छाती !
 
+
</poem>
तकरार न करना जाना है एकाकी<br>
+
हमराह बचेगा कौन भला अब बाकी<br>
+
:जब सम्बल भी सब एक-एक कर छुटता<br>
+
बस बची एक झाँकी उन नक्शे-पा की ।<br><br>
+
 
+
छुट चले राह में नये-पुराने साथी<br>
+
मिट गयी मार्गदर्शक यह कम्पित बाती<br>
+
:नंगी प्रकृति वीरान भयावह आगे<br>
+
मैं जाता हूँ, आओ, हो जिस की छाती !<br><br>
+

20:06, 4 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

इस मुसाफ़िरी का कुछ न ठिकाना भइया !
याँ हार बन गया अदना दाना, भइया ।
है पता न कितनी और दूर है मंज़िल
हम ने तो जाना केवल जाना, भइया !

तकरार न करना जाना है एकाकी
हमराह बचेगा कौन भला अब बाक़ी
जब सम्बल भी सब एक-एक कर छुटता
बस बची एक झाँकी उन नक़्शे-पा की ।

छूट चले राह में नए-पुराने साथी
मिट गई मार्गदर्शक यह कम्पित बाती
नंगी प्रकृति वीरान भयावह आगे
मैं जाता हूँ, आओ, हो जिस की छाती !