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"सुनो ओ शकुन्तलाओ! / रवीन्द्र दास" के अवतरणों में अंतर

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सुनो ओ शकुन्तलाओ!
 
सुनो ओ शकुन्तलाओ!
 
 
मत इतराओ कि तुम दुष्यन्त-प्रिया हो
 
मत इतराओ कि तुम दुष्यन्त-प्रिया हो
 
 
तुम्हारे उन्मत्त यौवन से बौखलाया कोई
 
तुम्हारे उन्मत्त यौवन से बौखलाया कोई
 
 
अपनी तृप्ति करने को
 
अपनी तृप्ति करने को
 
 
बहलाता है तुम्हें
 
बहलाता है तुम्हें
 
 
मीठी-मीठी लुभावनी बातों से
 
मीठी-मीठी लुभावनी बातों से
 
 
जबकि होता नहीं बातों का कोई खतियान
 
जबकि होता नहीं बातों का कोई खतियान
 
 
पौरूष उत्कर्ष सहने के एवज में
 
पौरूष उत्कर्ष सहने के एवज में
 
 
भले ही मिले कोई
 
भले ही मिले कोई
 
 
कीमती मुद्रिका
 
कीमती मुद्रिका
 
 
उसे बेचा भी तो नहीं जा सकता खुले बाजार में
 
उसे बेचा भी तो नहीं जा सकता खुले बाजार में
 
 
हो सकता है
 
हो सकता है
 
 
अस्वीकार कर दे तुम्हारे गर्भ को
 
अस्वीकार कर दे तुम्हारे गर्भ को
 
 
बरतनी थी सावधानियाँ पहले ही
 
बरतनी थी सावधानियाँ पहले ही
 
 
अब ढोओ उत्सर्जन उसका
 
अब ढोओ उत्सर्जन उसका
 
 
बनाकर अपने शरीर का हिस्सा
 
बनाकर अपने शरीर का हिस्सा
 
 
मानो उसे जीवन का सर्वस्व....
 
मानो उसे जीवन का सर्वस्व....
 
 
कभी मौके पर
 
कभी मौके पर
 
 
हो जाएगा वह अक्षम जब
 
हो जाएगा वह अक्षम जब
 
 
उसे महसूस होगी आवश्यकता उत्तराधिकारी की
 
उसे महसूस होगी आवश्यकता उत्तराधिकारी की
 
 
तुम्हें ढ़ूँढे
 
तुम्हें ढ़ूँढे
 
 
प्रामाणिक रक्त-पुत्र की तलाश में
 
प्रामाणिक रक्त-पुत्र की तलाश में
 
 
इस दायित्व को निभाने में
 
इस दायित्व को निभाने में
 
 
बीत तो जाएगा ही एक जीवन
 
बीत तो जाएगा ही एक जीवन
 
 
मरते हुए हो सकता है तुम विधवा रहो दुष्यन्त की
 
मरते हुए हो सकता है तुम विधवा रहो दुष्यन्त की
 
 
लेकिन आज तुम दुष्यन्त-प्रिया नहीं
 
लेकिन आज तुम दुष्यन्त-प्रिया नहीं
 
 
सुनो ओ शकुन्तलाओ!
 
सुनो ओ शकुन्तलाओ!
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23:34, 6 जून 2009 के समय का अवतरण

सुनो ओ शकुन्तलाओ!
मत इतराओ कि तुम दुष्यन्त-प्रिया हो
तुम्हारे उन्मत्त यौवन से बौखलाया कोई
अपनी तृप्ति करने को
बहलाता है तुम्हें
मीठी-मीठी लुभावनी बातों से
जबकि होता नहीं बातों का कोई खतियान
पौरूष उत्कर्ष सहने के एवज में
भले ही मिले कोई
कीमती मुद्रिका
उसे बेचा भी तो नहीं जा सकता खुले बाजार में
हो सकता है
अस्वीकार कर दे तुम्हारे गर्भ को
बरतनी थी सावधानियाँ पहले ही
अब ढोओ उत्सर्जन उसका
बनाकर अपने शरीर का हिस्सा
मानो उसे जीवन का सर्वस्व....
कभी मौके पर
हो जाएगा वह अक्षम जब
उसे महसूस होगी आवश्यकता उत्तराधिकारी की
तुम्हें ढ़ूँढे
प्रामाणिक रक्त-पुत्र की तलाश में
इस दायित्व को निभाने में
बीत तो जाएगा ही एक जीवन
मरते हुए हो सकता है तुम विधवा रहो दुष्यन्त की
लेकिन आज तुम दुष्यन्त-प्रिया नहीं
सुनो ओ शकुन्तलाओ!