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| − | मेरे एकाकी | + | <poem> |
| − | वह केसरी | + | बिदा हो गई साँझ, विनत मुख पर झीना आँचल धर, |
| − | नव | + | मेरे एकाकी आँगन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर! |
| − | मैं बरामदे में लेटा शैय्या पर, | + | वह केसरी दुकूल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर, |
| − | मन का साथी बना बादलों का विषाद है नीरव! | + | नव असाढ़ के मेघों से घिर रहा बराबर अंबर! |
| − | सक्रिय यह सकरुण विषाद, -मेघों से | + | |
| − | भावी के | + | मैं बरामदे में लेटा, शैय्या पर, पीड़ित अवयव, |
| − | मुखर विरह दादुर पुकारता उत्कंठित भेकी को, | + | मन का साथी बना बादलों का विषाद है नीरव! |
| − | + | सक्रिय यह सकरुण विषाद,--मेघों से उमड़ उमड़ कर | |
| − | आलोकित हो उठता सुख से मेघों का नभ चंचल, | + | भावी के बहु स्वप्न, भाव बहु व्यथित कर रहे अंतर! |
| − | अंतरतम में एक मधुर स्मृति जग जग उठती | + | |
| − | कम्पित करता वक्ष धरा का घन | + | मुखर विरह दादुर पुकारता उत्कंठित भेकी को, |
| − | भू पर | + | बर्हभार से मोर लुभाता मेघ-मुग्ध केकी को; |
| − | भीनी भाप सहज ही साँसों में घुल मिल कर | + | आलोकित हो उठता सुख से मेघों का नभ चंचल, |
| − | एक और भी मधुर गंध से हृदय दे रही है भर! | + | अंतरतम में एक मधुर स्मृति जग जग उठती प्रतिपल! |
| − | नव | + | |
| − | + | कम्पित करता वक्ष धरा का घन गभीर गर्जन स्वर, | |
| − | एक मधुरतम स्मृति पल भर विद्युत सी जल कर | + | भू पर ही आगया उतर शत धाराओं में अंबर! |
| − | याद दिलाती मुझे | + | भीनी भीनी भाप सहज ही साँसों में घुल मिल कर |
| + | एक और भी मधुर गंध से हृदय दे रही है भर! | ||
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| + | नव असाढ़ की संध्या में, मेघों के तम में कोमल, | ||
| + | पीड़ित एकाकी शय्या पर, शत भावों से विह्वल, | ||
| + | एक मधुरतम स्मृति पल भर विद्युत सी जल कर उज्वल | ||
| + | याद दिलाती मुझे हृदय में रहती जो तुम निश्चल! | ||
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| + | रचनाकाल: जुलाई’ ३९ | ||
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17:46, 4 मई 2010 के समय का अवतरण
बिदा हो गई साँझ, विनत मुख पर झीना आँचल धर,
मेरे एकाकी आँगन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर!
वह केसरी दुकूल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर,
नव असाढ़ के मेघों से घिर रहा बराबर अंबर!
मैं बरामदे में लेटा, शैय्या पर, पीड़ित अवयव,
मन का साथी बना बादलों का विषाद है नीरव!
सक्रिय यह सकरुण विषाद,--मेघों से उमड़ उमड़ कर
भावी के बहु स्वप्न, भाव बहु व्यथित कर रहे अंतर!
मुखर विरह दादुर पुकारता उत्कंठित भेकी को,
बर्हभार से मोर लुभाता मेघ-मुग्ध केकी को;
आलोकित हो उठता सुख से मेघों का नभ चंचल,
अंतरतम में एक मधुर स्मृति जग जग उठती प्रतिपल!
कम्पित करता वक्ष धरा का घन गभीर गर्जन स्वर,
भू पर ही आगया उतर शत धाराओं में अंबर!
भीनी भीनी भाप सहज ही साँसों में घुल मिल कर
एक और भी मधुर गंध से हृदय दे रही है भर!
नव असाढ़ की संध्या में, मेघों के तम में कोमल,
पीड़ित एकाकी शय्या पर, शत भावों से विह्वल,
एक मधुरतम स्मृति पल भर विद्युत सी जल कर उज्वल
याद दिलाती मुझे हृदय में रहती जो तुम निश्चल!
रचनाकाल: जुलाई’ ३९