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"मधुशाला / भाग २ / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

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बड़े बड़े परिवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला,
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हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला,
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राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए,
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जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला।।२१।
  
बड़े बड़े परिवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला,<br>
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सब मिट जाएँ, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला,
हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला,<br>
+
सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ' हाला,
राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए,<br>
+
धूमधाम औ' चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें,
जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला।।२१।<br><br>
+
जगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।२२।
  
सब मिट जाएँ, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला,<br>
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बुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, चंचल प्याला,
सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ' हाला,<br>
+
छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला,
धूमधाम औ' चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें,<br>
+
पटे कहाँ से, मधुशाला औ' जग की जोड़ी ठीक नहीं,
झगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।२२।<br><br>
+
जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३।
  
भुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, मदचंचल प्याला,<br>
+
बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला,
छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला,<br>
+
पी लेने पर तो उसके मुँह पर पड़ जाएगा ताला,
पटे कहाँ से, मधु औ' जग की जोड़ी ठीक नहीं,<br>
+
दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,
जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३।<br><br>
+
विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४।
  
बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला,<br>
+
हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला,
पी लेने पर तो उसके मुह पर पड़ जाएगा ताला,<br>
+
वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला,
दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,<br>
+
स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने,
विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४।<br><br>
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पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५।
  
हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला,<br>
+
एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला,<br>
+
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने,<br>
+
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५।<br><br>
+
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।
  
एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,<br>
+
नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,<br>
+
कौन अपिरिचत उस साकी से, जिसने दूध पिला पाला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,<br>
+
जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।<br><br>
+
जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७।
  
नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला,<br>
+
बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला,
कौन अपिरिचत उस साकी से, जिसने दूध पिला पाला,<br>
+
बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला,
जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही,<br>
+
बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने,
जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७।<br><br>
+
बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८।
  
बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला,<br>
+
सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला,
बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला,<br>
+
मंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवाला,
बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त जो होना जाने,<br>
+
मित्रों, मेरी क्षेम पूछो आकर, पर मधुशाला की,
बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८।<br><br>
+
कहा करो 'जय राम' न मिलकर, कहा करो 'जय मधुशाला'।।२९।
  
सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला,<br>
+
सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जल, हाला,
मंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवाला,<br>
+
बादल बन-बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला,
मित्रों, मेरी क्षेम न पूछो आकर, पर मधुशाला की,<br>
+
झड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम कर,
कहा करो 'जय राम' न मिलकर, कहा करो 'जय मधुशाला'।।२९।<br><br>
+
बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला।।३०।
  
सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जल, हाला,<br>
+
तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्याला,
बादल बन-बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला,<br>
+
सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला,
झड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम कर,<br>
+
मज्ञल्तऌा समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए,
बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला।।३०।<br><br>
+
फैले हों जो सागर तट से विश्व बने यह मधुशाला।।३१।
  
तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्याला,<br>
+
अधरों पर हो कोई भी रस जिह्वा पर लगती हाला,
सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला,<br>
+
भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,
मज्ञल्तऌा समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए,<br>
+
हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती,
फैले हों जो सागर तट से विश्व बने यह मधुशाला।।३१।<br><br>
+
आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२।
  
अधरों पर हो कोई भी रस जिह्वा पर लगती हाला,<br>
+
पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला,
भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,<br>
+
भरी हुई है जिसके अंदर परिमल-मधु-सुरिभत हाला,
हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती,<br>
+
माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं,
आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२।<br><br>
+
झूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला!।३३।
  
पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला,<br>
+
प्रति रसाल तरू साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर पिरमल-मधु-सुरिभत हाला,<br>
+
छलक रही है जिसके बाहर मादक सौरभ की हाला,
माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं,<br>
+
छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली
झूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला!।३३।<br><br>
+
हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४।
  
प्रति रसाल तरू साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला,<br>
+
मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला
छलक रही है जिसके बाहर मादक सौरभ की हाला,<br>
+
भर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधु-मद-मतवाला,
छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली<br>
+
हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लरियाँ,
हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४।<br><br>
+
छक छक, झुक झुक झूम रही हैं, मधुबन में है मधुशाला।।३५।
  
मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला<br>
+
साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला,
भर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधु-मद-मतवाला,<br>
+
तारक-मणि-मंडित चादर दे मोल धरा लेती हाला,
हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लरियाँ,<br>
+
अगणित कर-किरणों से जिसको पी, खग पागल हो गाते,
छक छक, झुक झुक झूम रही हैं, मधुबन में है मधुशाला।।३५।<br><br>
+
प्रति प्रभात में पूर्ण प्रकृति में मुखिरत होती मधुशाला।।३६।
  
साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला,<br>
+
उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला,
तारक-मणि-मंडित चादर दे मोल धरा लेती हाला,<br>
+
बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती हाला,
अगणित कर-किरणों से जिसको पी, खग पागल हो गाते,<br>
+
जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर मिट जाते
प्रति प्रभात में पूर्ण प्रकृति में मुखिरत होती मधुशाला।।३६।<br><br>
+
सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७।
  
उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला,<br>
+
अंधकार है मधुविक्रेता, सुन्दर साकी शशिबाला
बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती हाला,<br>
+
किरण किरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला,
जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर मिट जाते<br>
+
पीकर जिसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी
सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७।<br><br>
+
तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है, मधुशाला।।३८।
  
अंधकार है मधुविक्रेता, सुन्दर साकी शशिबाला<br>
+
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला
किरण किरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला,<br>
+
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला,
पीकर जिसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी<br>
+
किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी
तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है, मधुशाला।।३८।<br><br>
+
किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९।
  
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला<br>
+
साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला,
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला,<br>
+
जिनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला,
किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी<br>
+
योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए,
किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९।<br><br>
+
देखो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०।
 
+
</poem>
साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला,<br>
+
जिनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला,<br>
+
योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए,<br>
+
देखो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०।<br><br>
+

15:20, 25 जुलाई 2020 के समय का अवतरण

बड़े बड़े परिवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला,
हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला,
राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए,
जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला।।२१।

सब मिट जाएँ, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला,
सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ' हाला,
धूमधाम औ' चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें,
जगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।२२।

बुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, चंचल प्याला,
छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला,
पटे कहाँ से, मधुशाला औ' जग की जोड़ी ठीक नहीं,
जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३।

बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला,
पी लेने पर तो उसके मुँह पर पड़ जाएगा ताला,
दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,
विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४।

हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला,
वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला,
स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने,
पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५।

एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।

नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला,
कौन अपिरिचत उस साकी से, जिसने दूध पिला पाला,
जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही,
जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७।

बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला,
बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला,
बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने,
बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८।

सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला,
मंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवाला,
मित्रों, मेरी क्षेम न पूछो आकर, पर मधुशाला की,
कहा करो 'जय राम' न मिलकर, कहा करो 'जय मधुशाला'।।२९।

सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जल, हाला,
बादल बन-बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला,
झड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम कर,
बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला।।३०।

तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्याला,
सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला,
मज्ञल्तऌा समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए,
फैले हों जो सागर तट से विश्व बने यह मधुशाला।।३१।

अधरों पर हो कोई भी रस जिह्वा पर लगती हाला,
भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,
हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती,
आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२।

पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर परिमल-मधु-सुरिभत हाला,
माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं,
झूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला!।३३।

प्रति रसाल तरू साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला,
छलक रही है जिसके बाहर मादक सौरभ की हाला,
छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली
हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४।

मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला
भर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधु-मद-मतवाला,
हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लरियाँ,
छक छक, झुक झुक झूम रही हैं, मधुबन में है मधुशाला।।३५।

साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला,
तारक-मणि-मंडित चादर दे मोल धरा लेती हाला,
अगणित कर-किरणों से जिसको पी, खग पागल हो गाते,
प्रति प्रभात में पूर्ण प्रकृति में मुखिरत होती मधुशाला।।३६।

उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला,
बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती हाला,
जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर मिट जाते
सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७।

अंधकार है मधुविक्रेता, सुन्दर साकी शशिबाला
किरण किरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला,
पीकर जिसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी
तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है, मधुशाला।।३८।

किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला,
किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी
किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९।

साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला,
जिनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला,
योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए,
देखो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०।