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"बाढ़ / ओमप्रकाश सारस्वत" के अवतरणों में अंतर

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| रचनाकार=ओमप्रकाश सारस्वत
 
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<poem>मुसोयी हुई बस्ती पर जबी
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सोयी हुई बस्ती पर जबी
 
अचानक आक्रमण होता है बाढ़ का
 
अचानक आक्रमण होता है बाढ़ का
 
शहर के तमाम अखबार तभी
 
शहर के तमाम अखबार तभी

12:54, 20 जून 2020 के समय का अवतरण

सोयी हुई बस्ती पर जबी
अचानक आक्रमण होता है बाढ़ का
शहर के तमाम अखबार तभी
खबरों को
विध्वंस के अभियान की तरह
प्रचारित करते हुए
प्रलयकाल के द्र्ष्टा की तरह
सत्य को शास्त्रों की शैली में कहते हैं

जो सृष्टि का कोमलता पदार्थ है
जगती का वही क्रूरतम यथार्थ है
काल जब चाहे
किसी के किए-कराए पर
पानी फेर सकता है


वैसे सोना खेलते नगरों
और मोती पहनी संस्कृतियों को
कैसे उजाड़ती है बाढ़
यह,या तो कोई प्राचीन खण्डहर
या धरती की परतों में सोई
कोई पुरातात्विक गाथा ही बता सकती है

किंतु,चिंतक कहते हैं
बाढ़, सदा खुद ही नहीं आती
वह बुलाई भी जाती है
जब हम किसी भी चीज़ की अति को रोक नहीं पाते
तब उसकी गति ही प्रलय बनकर
निगल जाती है
सारहीन व्यक्तित्व वाले किनारों को
गिरते वृक्षों के बेमतलब अवरोधों के बावजूद

और कभी यही बाढ़
हमारे विवेक के बोधि वृक्ष को ढकार
हमारे तमाम विश्वसनीय सम्बंधों को कीचड़ करके
बाड़वाग्नि की तरह
सत् के सिन्धु को
घी के समुद्र की तरह
पी जाती है गटागट

हम बहुत बार
बाढ़ को उतर जाने वाला जल समझ कर
बालू पर किश्ती की तरह
बेखटके बैठ जाते हैं
और जब बह जाते हैं
शायद त्अब सोचते हैं कि
बालू का आधार
आखिर किश्ती नहीं हो सकता था

मेरे दादा जी कहते थे कि
बाढ़ सदा
'मत्स्यन्याय, की चरम परिणति का परिणाम होती है

मेरे पिता जी सुनाते हैं कि
त्रेता और द्वापर में
जब-जब भी बाढ़ का प्रसंग आया है
शम्बूक ने अपनी द्विजात्वप्राप्ति का मूल्योपहार
सिर देकर चुकाया है
और एकलव्य ने
धनुषप्रवीणता की दक्षिणा हेतु
अंगूठे के सिर क्ई तरह काटकर
पक्षपाती गुरू के चरणों पर चढ़ाया है

उनका मत है कि
त्रेता और द्वापर में
श्री राम और श्री कृष्ण के राज को
अविवेक और पक्षपात की बाढ़ ने ही निगला था
सरयू और यमुना तो
तब से अब तलक
उन्हीं घाटों के मध्य बह रही हैं।
मित्र! मैं यहाँ कई बरसों से सुन रहा हूँ कि
इस बरस बाढ़ को
ईख के किसी खेत में घुसने नहीं दिया जाएगा
किसी पकी बाली को खुसने नहीं दिया जाएगा
सर्वत्र मंगल ही मंगल होगा
सारे पोखरों तालाबों का जल
गंगाजल होगा

पर उदघोषणा चल ही रही होती है कि
बाढ़ आ जाती है
और वह तत्काल बहा के ले जाती है
हमारे सारे गन्नों की मिठाअस
हमारे सारे पन्नों के स्वप्न

तब मैं लाऊडस्वीकर तथा रेडियो पर
सुनता हूँ यथाभ्यासे कि
बाढ़ इस साल भी मानी नहीं
उसने किसी की कोई कीमत जानी नहीं
वह समस्त जननायकों के
रात-दिन समझाने पर भी
इस बार भी जाती हई दे गई चेतावनी कि

तुम कितने ही सुनाओ मुझे ये
रामायण में सिन्धु क्ओ बाँधने के लटके
पर जब तलक तुम मेरे मार्ग में
विवेक के आल्पस नहीं खड़ा कर दोगे;
अपनी सोच को हिमालय से बड़ा नहीं कर लोगे
तब तलक मैं इसी तरह आती रहूँगी बेरोक-टोक
और ढाती रहूँगी तुम्हारे बांधनुओं को
मिट्टी के घरौंदों की तरह, शतबार

ताकि हो सकता है एक दिन
तुम गीता को पूजा घर में पढ़ना छोड़
जीवन के रणांङण में
'युद्धाय कृत निश्चय:' होकर
विगतश्रम हो कर, पढ़ने लग जाओ
और स्वार्थ के गृहद्वेषी कौरवों से
सतत् लड़ने लग जाओ