Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
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+ | दिवसावसान का समय- | ||
+ | मेघमय आसमान से उतर रही है | ||
+ | वह संध्या-सुन्दरी, परी सी, | ||
+ | धीरे, धीरे, धीरे | ||
+ | तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास, | ||
+ | मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर, | ||
+ | किंतु गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास। | ||
− | + | हँसता है तो केवल तारा एक- | |
+ | गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से, | ||
+ | हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक। | ||
− | + | अलसता की-सी लता, | |
− | + | किंतु कोमलता की वह कली, | |
− | + | सखी-नीरवता के कंधे पर डाले बाँह, | |
− | + | छाँह सी अम्बर-पथ से चली। | |
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− | व्योम मंडल में, | + | नहीं बजती उसके हाथ में कोई वीणा, |
− | सोती शान्त सरोवर पर उस अमल कमलिनी-दल में - | + | नहीं होता कोई अनुराग-राग-आलाप, |
− | सौंदर्य-गर्विता-सरिता के अति विस्तृत वक्षस्थल में - | + | नूपुरों में भी रुन-झुन रुन-झुन नहीं, |
− | धीर-वीर गम्भीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में - | + | सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप' |
− | उत्ताल तरंगाघात-प्रलय घनगर्जन-जलधि-प्रबल में - | + | है गूँज रहा सब कहीं- |
− | क्षिति में जल में नभ में अनिल-अनल में - | + | व्योम मंडल में, जगतीतल में- |
− | सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप' | + | सोती शान्त सरोवर पर उस अमल कमलिनी-दल में- |
− | है गूँज रहा सब कहीं - | + | सौंदर्य-गर्विता-सरिता के अति विस्तृत वक्षस्थल में- |
+ | धीर-वीर गम्भीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में- | ||
+ | उत्ताल तरंगाघात-प्रलय घनगर्जन-जलधि-प्रबल में- | ||
+ | क्षिति में, जल में,नभ में, अनिल-अनल में- | ||
+ | सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप' | ||
+ | है गूँज रहा सब कहीं- | ||
+ | और क्या है? कुछ नहीं। | ||
− | + | मदिरा की वह नदी बहाती आती, | |
− | मदिरा की वह नदी बहाती आती, | + | थके हुए जीवों को वह सस्नेह, |
− | थके हुए जीवों को वह सस्नेह, | + | प्याला एक पिलाती। |
− | प्याला एक पिलाती। | + | सुलाती उन्हें अंक पर अपने, |
− | सुलाती उन्हें अंक पर अपने, | + | दिखलाती फिर विस्मृति के वह अगणित मीठे सपने। |
− | दिखलाती फिर विस्मृति के वह अगणित मीठे सपने। | + | |
− | + | अर्द्धरात्रि की निश्चलता में हो जाती जब लीन, | |
− | कवि का बढ़ जाता अनुराग, | + | कवि का बढ़ जाता अनुराग, |
− | विरहाकुल कमनीय कंठ से, | + | विरहाकुल कमनीय कंठ से, |
− | आप निकल पड़ता तब एक विहाग!< | + | आप निकल पड़ता तब एक विहाग! |
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02:10, 20 जनवरी 2020 के समय का अवतरण
दिवसावसान का समय-
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या-सुन्दरी, परी सी,
धीरे, धीरे, धीरे
तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास,
मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर,
किंतु गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास।
हँसता है तो केवल तारा एक-
गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से,
हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक।
अलसता की-सी लता,
किंतु कोमलता की वह कली,
सखी-नीरवता के कंधे पर डाले बाँह,
छाँह सी अम्बर-पथ से चली।
नहीं बजती उसके हाथ में कोई वीणा,
नहीं होता कोई अनुराग-राग-आलाप,
नूपुरों में भी रुन-झुन रुन-झुन नहीं,
सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप'
है गूँज रहा सब कहीं-
व्योम मंडल में, जगतीतल में-
सोती शान्त सरोवर पर उस अमल कमलिनी-दल में-
सौंदर्य-गर्विता-सरिता के अति विस्तृत वक्षस्थल में-
धीर-वीर गम्भीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में-
उत्ताल तरंगाघात-प्रलय घनगर्जन-जलधि-प्रबल में-
क्षिति में, जल में,नभ में, अनिल-अनल में-
सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप'
है गूँज रहा सब कहीं-
और क्या है? कुछ नहीं।
मदिरा की वह नदी बहाती आती,
थके हुए जीवों को वह सस्नेह,
प्याला एक पिलाती।
सुलाती उन्हें अंक पर अपने,
दिखलाती फिर विस्मृति के वह अगणित मीठे सपने।
अर्द्धरात्रि की निश्चलता में हो जाती जब लीन,
कवि का बढ़ जाता अनुराग,
विरहाकुल कमनीय कंठ से,
आप निकल पड़ता तब एक विहाग!