भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जंगल बोला / अवतार एनगिल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 4 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=अवतार एनगिल
 
|रचनाकार=अवतार एनगिल
|संग्रह=मनखान आएगा / अवतार एनगिल
+
|संग्रह=मनखान आएगा / अवतार एनगिल; तीन डग कविता / अवतार एनगिल
 
}}
 
}}
<poem>मैंने जंगल से कहा__
+
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 +
मैंने जंगल से कहा__
 
मेरी बगिया से बाहर लगा जंगला
 
मेरी बगिया से बाहर लगा जंगला
 
तुम्हारी लक्ष्मण रेखा है
 
तुम्हारी लक्ष्मण रेखा है
पंक्ति 20: पंक्ति 22:
 
जब तुम अपना फाटक खोल  
 
जब तुम अपना फाटक खोल  
 
मेरी सीमा से आते हो
 
मेरी सीमा से आते हो
उधम मचाते हो
+
ऊधम मचाते हो
 
तब तुम्हारी लक्ष्मण रेखा कहाँ जाती है
 
तब तुम्हारी लक्ष्मण रेखा कहाँ जाती है
  

16:17, 24 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण

मैंने जंगल से कहा__
मेरी बगिया से बाहर लगा जंगला
तुम्हारी लक्ष्मण रेखा है
और फाटक उस पर बन्द कर
अन्दर आ गया

पर सामने सोफे पर
अपने कन्धों पर कम्बल ओढ़े
बैठा जंगल मुस्कुरा रहा था
उसने अपने नंगे पाँव
खाने की मेज़ तक फैला दिये थे
और
मेरे मुँह से बहती आग को अनदेखा कर
जंगल बोलाः
जब तुम अपना फाटक खोल
मेरी सीमा से आते हो
ऊधम मचाते हो
तब तुम्हारी लक्ष्मण रेखा कहाँ जाती है

...और देखो तो ज़रा---- कहकर
जंगल ने कँधों से
अपना कम्बल सरकाया...
दो कटे बाज़ू
मुझे घूर रहे थे

मुस्कुराकर वह बोला
देखते क्या हो
हाथ बढ़ाओ
ज़मीन से यह लबादा उठाओ
और मेरे कंधे ढँक दो।