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अंगद देव या गुरू अंगद देव सिखों के दूसरे गुरु हैं। इनका जन्म मते की सराय, जिला फिरोजपुर में हुआ था। इनके जन्म का नाम लहिणाजी था। लहिणाजी दुर्गा के भक्त थे। एक बार वैष्णोदेवी जाते समय गुरु नानक इन्हें मिले। उनके दर्शन तथा उपदेश के प्रभाव से इनको ऐसी शांति मिली कि ये उनके अनन्य भक्त हो गए। नानकदेव भी इनकी भक्ति और सेवा से अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने इनका नाम अंगद रखा तथा अपने पश्चात गुरुगद्दी का अधिकार दिया। ग्रंथ साहब में इनके 63 पद हैं। गुरुमुखी लिपि इन्हीं की देन है। प्रेम, भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का प्रचार इनकी वाणी का मुख्य उद्देश्य है। | अंगद देव या गुरू अंगद देव सिखों के दूसरे गुरु हैं। इनका जन्म मते की सराय, जिला फिरोजपुर में हुआ था। इनके जन्म का नाम लहिणाजी था। लहिणाजी दुर्गा के भक्त थे। एक बार वैष्णोदेवी जाते समय गुरु नानक इन्हें मिले। उनके दर्शन तथा उपदेश के प्रभाव से इनको ऐसी शांति मिली कि ये उनके अनन्य भक्त हो गए। नानकदेव भी इनकी भक्ति और सेवा से अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने इनका नाम अंगद रखा तथा अपने पश्चात गुरुगद्दी का अधिकार दिया। ग्रंथ साहब में इनके 63 पद हैं। गुरुमुखी लिपि इन्हीं की देन है। प्रेम, भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का प्रचार इनकी वाणी का मुख्य उद्देश्य है। | ||
19:11, 15 सितम्बर 2012 के समय का अवतरण
अंगद देव या गुरू अंगद देव सिखों के दूसरे गुरु हैं। इनका जन्म मते की सराय, जिला फिरोजपुर में हुआ था। इनके जन्म का नाम लहिणाजी था। लहिणाजी दुर्गा के भक्त थे। एक बार वैष्णोदेवी जाते समय गुरु नानक इन्हें मिले। उनके दर्शन तथा उपदेश के प्रभाव से इनको ऐसी शांति मिली कि ये उनके अनन्य भक्त हो गए। नानकदेव भी इनकी भक्ति और सेवा से अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने इनका नाम अंगद रखा तथा अपने पश्चात गुरुगद्दी का अधिकार दिया। ग्रंथ साहब में इनके 63 पद हैं। गुरुमुखी लिपि इन्हीं की देन है। प्रेम, भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का प्रचार इनकी वाणी का मुख्य उद्देश्य है।
गुरू अंगद देव महाराज जी का सृजनात्मक व्यक्तित्व था। उनमें ऐसी अध्यात्मिक क्रियाशीलता थी जिससे पहले वे एक सच्चे सिख बनें और फिर एक महान गुरु। गुरू अंगद साहिब जी (भाई लहना जी) का जन्म हरीके नामक गांव में, जो कि फिरोजपुर, पंजाब में आता है, वैसाख वदी १, (पंचम् वैसाख) सम्वत १५६१ (३१ मार्च, १५०४) को हुआ था। गुरुजी एक व्यापारी श्री फेरू जी के पुत्र थे। उनकी माता जी का नाम माता रामो जी था। बाबा नारायण दास त्रेहन उनके दादा जी थे, जिनका पैतृक निवास मत्ते-दी-सराय, जो मुख्तसर के समीप है, में था। फेरू जी बाद में इसी स्थान पर आकर निवास करने लगे।
सनातनी मत की अपनी आध्यात्मिक माता के प्रभाव से भाई लहना जी ने दुर्गा (हिन्दू देवी) की पूजा करते थे। वो प्रतिवर्ष भक्तों के एक जत्थे का नेतृत्व कर ज्वालामुखी मंदिर जाया करता था। १५२० में, विवाह माता खीवीं जी से हुआ। उनसे उनके दो पुत्र - दासू जी एवं दातू जी तथा दो पुत्रियाँ - अमरो जी एवं अनोखी जी हुई। मुगल एवं बलूच लुटेरों (जो कि बाबर के साथ आये थे) की वजह से फेरू जी को अपना पैतृक गांव छोड़ना पड़ा। इसके पश्चात उनका परिवार तरन तारन के समीप अमृतसर से लगभग २५ कि.मी. दूर स्थित खडूर साहिब नामक गांव में बस गया, जो कि ब्यास नदी के किनारे स्थित था।
एक बार भाई लहना जी ने भाई जोधा जी (गुरू नानक साहिब के अनुयायी एक सिख) के मुख से गुरू नानक साहिब जी के शबद् सुने और वो बहुत प्रभावित हुए। लहना जी निर्णय लिया कि वो गुरू नानक साहिब के दर्शन के लिए करतारपुर जायेंगे। उनकी गुरू नानक साहिब जी से पहली भेंट ने उनके जीवन में क्रांति ला दी। भेंट ने उन्हें पूर्ण रूप से बदल दिया। वो गुरू नानक साहिब के सिख बन गये एवं करतारपुर में निवास करने लगे। वे गुरू नानक साहिब जी के अनन्य सिख थे। गुरुनानक देव जी के महान एवं पवित्र मिशन के प्रति उनकी महान भक्ति को देखते हुए उन्हंण ÷द्वितीय नानक' के रूप में गुरू नानक साहिब जी द्वारा ७ सितम्बर, १५३९ के रूप में स्थापित करते हुए गुरुपद प्रदान किया गया। गुरू साहिब ने उन्हें एक नया नाम अंगद (गुरू अंगद साहिब) दिया। उन्होने गुरू साहिब की सेवा में ६ से ७ वर्ष करतारपुर में बिताये।
२२ सितम्बर, १५३९ को गुरू नानक साहिब जी की ज्योति जोत समाने के पश्चात गुरू अंगद साहिब करतारपुर छोड़ कर खडूर साहिब गांव (गोइन्दवाल के समीप) चले गये। उन्होने गुरू नानक साहिब जी के विचारों को दोनों ही रूप में, लिखित एवं भावनात्मक, प्रचारित किया। विभिन्न मतावलम्बियों, मतों, पंथों, सम्प्रदायों के योगी एवं संतों से उन्होंने आध्यात्म के विषय में गहन वार्तालाप किया।
गुरू अंगद साहिब ने गुरु नानकदेव प्रदत्त पंजाबी लिपि के वर्णों में फेरबदल कर गुरूमुखी लिपि की एक वर्णमाला को प्रस्तुत किया। वह लिपि बहुत जल्द लोगों में लोकप्रिय हो गयी। उन्होने बच्चों की शिक्षा में विशेष रूचि ली। उन्होंने विद्यालय व साहित्य केन्द्रों की स्थापना की। नवयुवकों के लिए उन्होंने मल्ल-अखाड़ा की प्रथा शुरू की। जहां पर शारीरिक ही नहीं, अपितु आध्यात्मिक नैपुण्यता प्राप्त होती थी। उन्होने भाई बाला जी से गुरू नानक साहिब जी के जीवन के तथ्यों के बारे में जाना एवं गुरू नानक साहिब जी की जीवनी लिखी। उन्होने ६३ श्लोकों की रचना की, जो कि गुरू ग्रन्थ साहिब जी में अंकित हैं। उन्होने गुरू नानक साहिब जी द्वारा चलायी गयी 'गुरू का लंगर' की प्रथा को सशक्त तथा प्रभावी बनाया। गुरू अंगद साहिब जी ने गुरू नानक साहिब जी द्वारा स्थापित सभी महत्वपूर्ण स्थानों एवं केन्द्रों का दौरा किया एवं सिख धर्म के प्रवचन सुनाये। उन्होने सैकड़ों नयी संगतों को स्थापित किया और इस प्रकार सिख धर्म के आधार को बल दिया। क्योंकि सिख धर्म का शैशवकाल था, इसलिए सिख धर्म को बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। सिख पंथ ने अपनी एक धार्मिक पहचान स्थापित की। गुरू अंगद साहिब ने गुरू नानक साहिब द्वारा स्थापित परम्परा के अनुरूप अपनी मृत्यु से पहले अमर दास साहिब को गुरुपद प्रदान किया। उन्होंने गुरमत विचार-गुरु शबद् रचनाओं को गुरू अमर दास साहिब जी को सौंप दिया। ४८ वर्ष की आयु में २९ मार्च, १५५२ को वे ज्योति जोत समा गए। उन्होंने खडूर साहिब के निकट गोइन्दवाल में एक नये शहर का निर्माण कार्य शुरू किया था एवं गुरू अमर दास जी को इस निर्माण कार्य की देख रेख का जिम्मा सौंपा था।