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दर्पण बने कांच में
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खुद को देखता है सिपाही
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बोलती है धुंधली परछाईं
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आंखों के नीचे
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अनुभव की झुर्री
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सुरंग पार पहुंचते ही
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घिरता है धीरे-धीरे
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जनवरी का जमता अंधेरा
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सिपाही बहुत उदास है।
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10:16, 20 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण

लड़ाई के बाद
छुट्टी पर घर चले सिपाही ने
देखा खिडकी के शीशे में

आई एक सुरंग
जल उठे डिब्बे के छोटे बल्ब
यात्रियों के अपरिचित चेहरे
दर्पण के माहौल की उत्सुकता

दर्पण बने कांच में
खुद को देखता है सिपाही
बोलती है धुंधली परछाईं
घिर आई है
आंखों के नीचे
अनुभव की झुर्री
ऊँघता है पलकों के पलने में
थका हुआ युद्ध
आग बरसाने वाली
उसकी कठोर उंगलियों ने
मनी-ऑर्डर की वापस आई रसीद को भी
तो लपेटा है
सुरंग पार पहुंचते ही
जगमगा उठते हैं
ब्रास के लाल फूल
सरसराते हैं
परिवर्तित अर्थ गभित
गहरे हरे पत्ते
घिरता है धीरे-धीरे
जनवरी का जमता अंधेरा
सिपाही बहुत उदास है।