Last modified on 12 अक्टूबर 2017, at 22:34

"आना / महादेवी वर्मा" के अवतरणों में अंतर

(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महादेवी वर्मा |संग्रह=नीहार / महादेवी वर्मा }} <poem> ...)
 
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=नीहार / महादेवी वर्मा
 
|संग्रह=नीहार / महादेवी वर्मा
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatGeet}}
 
<poem>
 
<poem>
 
जो मुखरित कर जाती थी
 
जो मुखरित कर जाती थी

22:34, 12 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

जो मुखरित कर जाती थी
मेरा नीरव आवाहन,
मैं ने दुर्बल प्राणों की
वह आज सुला दी कम्पन!

थिरकन अपनी पुतली की
भारी पलकों में बाँधी,
निस्पन्द पड़ी हैं आँखें
बरसाने वाली आँखी।

जिसके निष्फल जीवन ने
जल जल कर देखीं राहें!
निर्वाण हुआ है देखो
वह दीप लुटा कर चाहें!

निर्घोष घटाओं में छिप
तड़पन चपला की सोती,
झंझा के उन्मादों में
घुलती जाती बेहोशी।

करुणामय को भाता है
तम के परदों में आना,
हे नभ की दीपावलियों!
तुम पल भर को बुझ जाना!