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"प्रेयसी / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर

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<poem>
 +
घेर अंग-अंग को
 +
लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की,
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ज्योतिर्मयि-लता-सी हुई मैं तत्काल
 +
घेर निज तरु-तन।
  
घेर अंग-अंग को<br>
+
खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के,
लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की, <br>
+
प्रथम वसन्त में गुच्छ-गुच्छ।
ज्योतिर्मीयिलता-सी हुई मैं तत्काल<br>
+
दृगों को रँग गयी प्रथम प्रणय-रश्मि-
घेर निज तरु-तन।<br><br>
+
चूर्ण हो विच्छुरित
 +
विश्व-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही
 +
बहु रंग-भाव भर
 +
शिशिर ज्यों पत्र पर कनक-प्रभात के,
 +
किरण-सम्पात से।
  
खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के, <br>
+
दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्यों
प्रथम वसन्त में गुच्छ-गुच्छ।<br>
+
विचरते मञ्जु-मुख
दृगों को रँग गयी प्रथम प्रणय-रश्मि-<br>
+
गुञ्ज-मृदु अलि-पुञ्ज
चूर्ण हो विच्छुरित<br>
+
मुखर उर मौन वा स्तुति-गीत में हरे।
विश्व-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही<br>
+
प्रस्रवण झरते आनन्द के चतुर्दिक-
बहु रंग-भाव भर<br>
+
भरते अन्तर पुलकराशि से बार-बार
शिशिर ज्यों पत्र पर कनक-प्रभात के, <br>
+
चक्राकार कलरव-तरंगों के मध्य में
किरण-सम्पात से।<br><br>
+
उठी हुई उर्वशी-सी,
 +
कम्पित प्रतनु-भार,
 +
विस्तृत दिगन्त के पार प्रिय बद्ध-दृष्टि
 +
निश्चल अरूप में।
  
दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्यों<br>
+
हुआ रूप-दर्शन
विचरते मञ्जु-मुख <br>
+
जब कृतविद्य तुम मिले
गुञ्ज-मृदु अलि-पुञ्ज<br>
+
विद्या को दृगों से,
मुखर उर मौन वा स्तुति-गीत में हरे।<br>
+
मिला लावण्य ज्यों मूर्ति को मोहकर,-
प्रस्रवण झरते आनन्द के चतुर्दिक-<br>
+
शेफालिका को शुभ हीरक-सुमन-हार,-
भरते अन्तर पुलकराशि से बार-बार<br>
+
श्रृंगार
चक्राकार कलरव-तरंगों के मध्य में<br>
+
शुचिदृष्टि मूक रस-सृष्टि को।
उठी हुई उर्वशी-सी, <br>
+
कम्पित प्रतनु-भार, <br>
+
विस्तृत दिगन्त के पार प्रिय बद्ध-दृष्टि<br>
+
निश्चल अरूप में।<br><br>
+
  
हुआ रूप-दर्शन<br>
+
याद है, उषःकाल,-
जब कृतविद्य तुम मिले<br>
+
प्रथम-किरण-कम्प प्राची के दृगों में,
विद्या को दृगों से, <br>
+
प्रथम पुलक फुल्ल चुम्बित वसन्त की
मिला लावण्य ज्यों मूर्ति को मोहकर,-<br>
+
मञ्जरित लता पर,
शेफालिका को शुभ हीरक-सुमन-हार,-<br>
+
प्रथम विहग-बालिकाओं का मुखर स्वर
श्रृंगार<br>
+
प्रणय-मिलन-गान,
शुचिदृष्टि मूक रस-सृष्टि को।<br><br>
+
प्रथम विकच कलि वृन्त पर नग्न-तनु
 +
प्राथमिक पवन के स्पर्श से काँपती;
  
याद है, उषःकाल,-<br>
+
करती विहार
प्रथम-किरण-कम्प प्राची के दृगों में, <br>
+
उपवन में मैं, छिन्न-हार
प्रथम पुलक फुल्ल चुम्बित वसन्त की<br>
+
मुक्ता-सी निःसंग,
मञ्जरित लता पर,<br>
+
बहु रूप-रंग वे देखती, सोचती;
प्रथम विहग-बालिकाओं का मुखर स्वर<br>
+
मिले तुम एकाएक;
प्रणय-मिलन-गान,<br>
+
देख मैं रुक गयी:-
प्रथम विकच कलि वृन्त पर नग्न-तनु<br>
+
चल पद हुए अचल,
प्राथमिक पवन के स्पर्श से काँपती;<br><br>
+
आप ही अपल दृष्टि,
 +
फैला समाष्टि में खिंच स्तब्ध मन हुआ।
  
करती विहार<br>
+
दिये नहीं प्राण जो इच्छा से दूसरे को,
उपवन में मैं, छिन्न-हार<br>
+
इच्छा से प्राण वे दूसरे के हो गये !
मुक्ता-सी निःसंग,<br>
+
दूर थी,
बहु रूप-रंग वे देखती, सोचती;<br>
+
खिंचकर समीप ज्यों मैं हुई।
मिले तुम एकाएक;<br>
+
अपनी ही दृष्टि में;
देख मैं रुक गयी:-<br>
+
जो था समीप विश्व,
चल पद हुए अचल, <br>
+
दूर दूरतर दिखा।
आप ही अपल दृष्टि, <br>
+
फैला समाष्टि में खिंच स्तब्ध मन हुआ।<br><br>
+
  
दिये नहीं प्राण जो इच्छा से दूसरे को, <br>
+
मिली ज्योति छबि से तुम्हारी
इच्छा से प्राण वे दूसरे के हो गये !<br>
+
ज्योति-छबि मेरी,
दूर थी, <br>
+
नीलिमा ज्यों शून्य से;
खिंचकर समीप ज्यों मैं हुई।<br>
+
बँधकर मैं रह गयी;
अपनी ही दृष्टि में;<br>
+
डूब गये प्राणों में
जो था समीप विश्व, <br>
+
पल्लव-लता-भार
दूर दूरतर दिखा।<br><br>
+
वन-पुष्प-तरु-हार
 +
कूजन-मधुर चल विश्व के दृश्य सब,-
 +
सुन्दर गगन के भी रूप दर्शन सकल-
 +
सूर्य-हीरकधरा प्रकृति नीलाम्बरा,
 +
सन्देशवाहक बलाहक विदेश के।
 +
प्रणय के प्रलय में सीमा सब खो गयी !
  
मिली ज्योति छबि से तुम्हारी<br>
+
बँधी हुई तुमसे ही
ज्योति-छबि मेरी, <br>
+
देखने लगी मैं फिर-
नीलिमा ज्यों शून्य से;<br>
+
फिर प्रथम पृथ्वी को;
बँधकर मैं रह गयी;<br>
+
भाव बदला हुआ-
डूब गये प्राणों में <br>
+
पहले ही घन-घटा वर्षण बनी हुई;
पल्लव-लता-भार<br>
+
कैसा निरञ्जन यह अञ्जन आ लग गया !
वन-पुष्प-तरु-हार<br>
+
कूजन-मधुर चल विश्व के दृश्य सब,-<br>
+
सुन्दर गगन के भी रूप दर्शन सकल-<br>
+
सूर्य-हीरकधरा प्रकृति नीलाम्बरा, <br>
+
सन्देशवाहक बलाहक विदेश के।<br>
+
प्रणय के प्रलय में सीमा सब खो गयी !<br><br>
+
  
बँधी हुई तुमसे ही<br>
+
देखती हुई सहज
देखने लगी मैं फिर-<br>
+
हो गयी मैं जड़ीभूत,
फिर प्रथम पृथ्वी को;<br>
+
जगा देहज्ञान,
भाव बदला हुआ-<br>
+
फिर याद गेह की हुई;
पहले ही घन-घटा वर्षण बनी हुई;<br>
+
लज्जित
कैसा निरञ्जन यह अञ्जन आ लग गया !<br><br>
+
उठे चरण दूसरी ओर को
 +
विमुख अपने से हुई !
  
देखती हुई सहज<br>
+
चली चुपचाप,
हो गयी मैं जड़ीभूत, <br>
+
मूक सन्ताप हृदय में,
जगा देहज्ञान, <br>
+
पृथुल प्रणय-भार।
फिर याद गेह की हुई;<br>
+
देखते निमेशहीन नयनों से तुम मुझे
लज्जित<br>
+
रखने को चिरकाल बाँधकर दृष्टि से
उठे चरण दूसरी ओर को<br>
+
अपना ही नारी रूप, अपनाने के लिए,
विमुख अपने से हुई !<br><br>
+
मर्त्य में स्वर्गसुख पाने के अर्थ, प्रिय,
 +
पीने को अमृत अंगों से झरता हुआ।
 +
कैसी निरलस दृष्टि !
  
चली चुपचाप, <br>
+
सजल शिशिर-धौत पुष्प ज्यों प्रात में
मूक सन्ताप हृदय में, <br>
+
देखता है एकटक किरण-कुमारी को।–
पृथुल प्रणय-भार।<br>
+
पृथ्वी का प्यार, सर्वस्व उपहार देता
देखते निमेशहीन नयनों से तुम मुझे<br>
+
नभ की निरुपमा को,
रखने को चिरकाल बाँधकर दृष्टि से<br>
+
पलकों पर रख नयन
अपना ही नारी रूप, अपनाने के लिए,<br>
+
करता प्रणयन, शब्द-
मर्त्य में स्वर्गसुख पाने के अर्थ, प्रिय, <br>
+
भावों में विश्रृंखल बहता हुआ भी स्थिर।
पीने को अमृत अंगों से झरता हुआ।<br>
+
देकर न दिया ध्यान मैंने उस गीत पर
कैसी निरलस दृष्टि !<br><br>
+
कुल मान-ग्रन्थि में बँधकर चली गयी;
 +
जीते संस्कार वे बद्ध संसार के-
 +
उनकी ही मैं हुई !
  
सजल शिशिर-धौत पुष्प ज्यों प्रात में<br>
+
समझ नहीं सकी, हाय,
देखता है एकटक किरण-कुमारी को।–<br>
+
बँधा सत्य अञ्चल से
पृथ्वी का प्यार, सर्वस्व उपहार देता<br>
+
खुलकर कहाँ गिरा।
नभ की निरुपमा को, <br>
+
बीता कुछ काल,
पलकों पर रख नयन<br>
+
देह-ज्वाला बढ़ने लगी,
करता प्रणयन, शब्द-<br>
+
नन्दन निकुञ्ज की रति को ज्यों मिला मरु,
भावों में विश्रृंखल बहता हुआ भी स्थिर।<br>
+
उतरकर पर्वत से निर्झरी भूमि पर
देकर न दिया ध्यान मैंने उस गीत पर <br>
+
पंकिल हुई, सलिल-देह कलुषित हुआ।
कुल मान-ग्रन्थि में बँधकर चली गयी;<br>
+
करुणा को अनिमेष दृष्टि मेरी खुली,
जीते संस्कार वे बद्ध संसार के-<br>
+
किन्तु अरुणार्क, प्रिय, झुलसाते ही रहे-
उनकी ही मैं हुई !<br>
+
भर नहीं सके प्राण रूप-विन्दु-दान से।
 +
तब तुम लघुपद-विहार
 +
अनिल ज्यों बार-बार
  
समझ नहीं सकी, हाय, <br>
+
वक्ष के सजे तार झंकृत करने लगे
बँधा सत्य अञ्चल से<br>
+
साँसों से, भावों से, चिन्ता से कर प्रवेश।
खुलकर कहाँ गिरा।<br>
+
अपने उस गीत पर
बीता कुछ काल, <br>
+
सुखद मनोहर उस तान का माया में,
देह-ज्वाला बढ़ने लगी, <br>
+
लहरों में हृदय की
नन्दन निकुञ्ज की रति को ज्यों मिला मरु, <br>
+
भूल-सी मैं गयी
उतरकर पर्वत से निर्झरी भूमि पर<br>
+
संसृति के दुःख-घात,
पंकिल हुई, सलिल-देह कलुषित हुआ।<br>
+
श्लथ-गात, तुममें ज्यों
करुणा को अनिमेष दृष्टि मेरी खुली, <br>
+
रही मैं बद्ध हो।
किन्तु अरुणार्क, प्रिय, झुलसाते ही रहे-<br>
+
भर नहीं सके प्राण रूप-विन्दु-दान से।<br>
+
तब तुम लघुपद-विहार<br>
+
अनिल ज्यों बार-बार<br><br>
+
  
वक्ष के सजे तार झंकृत करने लगे<br>
+
किन्तु हाय,
साँसों से, भावों से, चिन्ता से कर प्रवेश।<br>
+
रूढ़ि, धर्म के विचार,
अपने उस गीत पर<br>
+
कुल, मान, शील, ज्ञान,
सुखद मनोहर उस तान का माया में, <br>
+
उच्च प्राचीर ज्यों घेरे जो थे मुझे,
लहरों में हृदय की<br>
+
घेर लेते बार-बार,
भूल-सी मैं गयी<br>
+
जब मैं संसार में रखती थी पदमात्र,
संसृति के दुःख-घात, <br>
+
छोड़ कल्प-निस्सीम पवन-विहार मुक्त।
श्लथ-गात, तुममें ज्यों<br>
+
दोनों हम भिन्न-वर्ण,
रही मैं बद्ध हो।<br><br>
+
भिन्न-जाति, भिन्न-रूप,
 +
भिन्न-धर्मभाव, पर
 +
केवल अपनाव से, प्राणों से एक थे।
  
किन्तु हाय, <br>
+
किन्तु दिन रात का,
रूढ़ि, धर्म के विचार, <br>
+
जल और पृथ्वी का
कुल, मान, शील, ज्ञान, <br>
+
भिन्न सौन्दर्य से बन्धन स्वर्गीय है
उच्च प्राचीर ज्यों घेरे जो थे मुझे, <br>
+
समझे यह नहीं लोग
घेर लेते बार-बार, <br>
+
व्यर्थ अभिमान के !
जब मैं संसार में रखती थी पदमात्र, <br>
+
अन्धकार था हृदय
छोड़ कल्प-निस्सीम पवन-विहार मुक्त।<br>
+
अपने ही भार से झुका हुआ, विपर्यस्त।
दोनों हम भिन्न-वर्ण,<br>
+
गृह-जन थे कर्म पर।
भिन्न-जाति, भिन्न-रूप,<br>
+
मधुर प्रात ज्यों द्वार पर आये तुम,
भिन्न-धर्मभाव, पर<br>
+
नीड़-सुख छोड़कर मुझे मुक्त उड़ने को संग
केवल अपनाव से, प्राणों से एक थे।<br><br>
+
किया आह्वान मुझे व्यंग के शब्द में।
  
किन्तु दिन रात का, <br>
+
आयी मैं द्वार पर सुन प्रिय कण्ठ-स्वर,
जल और पृथ्वी का<br>
+
अश्रुत जो बजता रहा था झंकार भर
भिन्न सौन्दर्य से बन्धन स्वर्गीय है<br>
+
जीवन की वीणा में,
समझे यह नहीं लोग <br>
+
सुनती थी मैं जिसे।
व्यर्थ अभिमान के !<br>
+
पहचाना मैंने, हाथ बढ़ाकर तुमने गहा।
अन्धकार था हृदय <br>
+
चल दी मैं मुक्त, साथ।
अपने ही भार से झुका हुआ, विपर्यस्त।<br>
+
एक बार की ऋणी
गृह-जन थे कर्म पर।<br>
+
उद्धार के लिए,
मधुर प्रात ज्यों द्वार पर आये तुम, <br>
+
शत बार शोध की उर में प्रतिज्ञा की।
नीड़-सुख छोड़कर मुझे मुक्त उड़ने को संग<br>
+
किया आह्वान मुझे व्यंग के शब्द में।<br><br>
+
  
आयी मैं द्वार पर सुन प्रिय कण्ठ-स्वर, <br>
+
पूर्ण मैं कर चुकी।
अश्रुत जो बजता रहा था झंकार भर<br>
+
गर्वित, गरीयसी अपने में आज मैं।
जीवन की वीणा में, <br>
+
रूप के द्वार पर
सुनती थी मैं जिसे।<br>
+
मोह की माधुरी
पहचाना मैंने, हाथ बढ़ाकर तुमने गहा।<br>
+
कितने ही बार पी मूर्च्छित हुए हो, प्रिय,
चल दी मैं मुक्त, साथ।<br>
+
जागती मैं रही,
एक बार की ऋणी <br>
+
गह बाँह, बाँह में भरकर सँभाला तुम्हें।
उद्धार के लिए, <br>
+
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शत बार शोध की उर में प्रतिज्ञा की।<br><br>
+
 
+
पूर्ण मैं कर चुकी।<br>
+
गर्वित, गरीयसी अपने में आज मैं।<br>
+
रूप के द्वार पर<br>
+
मोह की माधुरी<br>
+
कितने ही बार पी मूर्च्छित हुए हो, प्रिय, <br>
+
जागती मैं रही, <br>
+
गह बाँह, बाँह में भरकर सँभाला तुम्हें।<br>
+

14:53, 19 जनवरी 2015 के समय का अवतरण

घेर अंग-अंग को
लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की,
ज्योतिर्मयि-लता-सी हुई मैं तत्काल
घेर निज तरु-तन।

खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के,
प्रथम वसन्त में गुच्छ-गुच्छ।
दृगों को रँग गयी प्रथम प्रणय-रश्मि-
चूर्ण हो विच्छुरित
विश्व-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही
बहु रंग-भाव भर
शिशिर ज्यों पत्र पर कनक-प्रभात के,
किरण-सम्पात से।

दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्यों
विचरते मञ्जु-मुख
गुञ्ज-मृदु अलि-पुञ्ज
मुखर उर मौन वा स्तुति-गीत में हरे।
प्रस्रवण झरते आनन्द के चतुर्दिक-
भरते अन्तर पुलकराशि से बार-बार
चक्राकार कलरव-तरंगों के मध्य में
उठी हुई उर्वशी-सी,
कम्पित प्रतनु-भार,
विस्तृत दिगन्त के पार प्रिय बद्ध-दृष्टि
निश्चल अरूप में।

हुआ रूप-दर्शन
जब कृतविद्य तुम मिले
विद्या को दृगों से,
मिला लावण्य ज्यों मूर्ति को मोहकर,-
शेफालिका को शुभ हीरक-सुमन-हार,-
श्रृंगार
शुचिदृष्टि मूक रस-सृष्टि को।

याद है, उषःकाल,-
प्रथम-किरण-कम्प प्राची के दृगों में,
प्रथम पुलक फुल्ल चुम्बित वसन्त की
मञ्जरित लता पर,
प्रथम विहग-बालिकाओं का मुखर स्वर
प्रणय-मिलन-गान,
प्रथम विकच कलि वृन्त पर नग्न-तनु
प्राथमिक पवन के स्पर्श से काँपती;

करती विहार
उपवन में मैं, छिन्न-हार
मुक्ता-सी निःसंग,
बहु रूप-रंग वे देखती, सोचती;
मिले तुम एकाएक;
देख मैं रुक गयी:-
चल पद हुए अचल,
आप ही अपल दृष्टि,
फैला समाष्टि में खिंच स्तब्ध मन हुआ।

दिये नहीं प्राण जो इच्छा से दूसरे को,
इच्छा से प्राण वे दूसरे के हो गये !
दूर थी,
खिंचकर समीप ज्यों मैं हुई।
अपनी ही दृष्टि में;
जो था समीप विश्व,
दूर दूरतर दिखा।

मिली ज्योति छबि से तुम्हारी
ज्योति-छबि मेरी,
नीलिमा ज्यों शून्य से;
बँधकर मैं रह गयी;
डूब गये प्राणों में
पल्लव-लता-भार
वन-पुष्प-तरु-हार
कूजन-मधुर चल विश्व के दृश्य सब,-
सुन्दर गगन के भी रूप दर्शन सकल-
सूर्य-हीरकधरा प्रकृति नीलाम्बरा,
सन्देशवाहक बलाहक विदेश के।
प्रणय के प्रलय में सीमा सब खो गयी !

बँधी हुई तुमसे ही
देखने लगी मैं फिर-
फिर प्रथम पृथ्वी को;
भाव बदला हुआ-
पहले ही घन-घटा वर्षण बनी हुई;
कैसा निरञ्जन यह अञ्जन आ लग गया !

देखती हुई सहज
हो गयी मैं जड़ीभूत,
जगा देहज्ञान,
फिर याद गेह की हुई;
लज्जित
उठे चरण दूसरी ओर को
विमुख अपने से हुई !

चली चुपचाप,
मूक सन्ताप हृदय में,
पृथुल प्रणय-भार।
देखते निमेशहीन नयनों से तुम मुझे
रखने को चिरकाल बाँधकर दृष्टि से
अपना ही नारी रूप, अपनाने के लिए,
मर्त्य में स्वर्गसुख पाने के अर्थ, प्रिय,
पीने को अमृत अंगों से झरता हुआ।
कैसी निरलस दृष्टि !

सजल शिशिर-धौत पुष्प ज्यों प्रात में
देखता है एकटक किरण-कुमारी को।–
पृथ्वी का प्यार, सर्वस्व उपहार देता
नभ की निरुपमा को,
पलकों पर रख नयन
करता प्रणयन, शब्द-
भावों में विश्रृंखल बहता हुआ भी स्थिर।
देकर न दिया ध्यान मैंने उस गीत पर
कुल मान-ग्रन्थि में बँधकर चली गयी;
जीते संस्कार वे बद्ध संसार के-
उनकी ही मैं हुई !

समझ नहीं सकी, हाय,
बँधा सत्य अञ्चल से
खुलकर कहाँ गिरा।
बीता कुछ काल,
देह-ज्वाला बढ़ने लगी,
नन्दन निकुञ्ज की रति को ज्यों मिला मरु,
उतरकर पर्वत से निर्झरी भूमि पर
पंकिल हुई, सलिल-देह कलुषित हुआ।
करुणा को अनिमेष दृष्टि मेरी खुली,
किन्तु अरुणार्क, प्रिय, झुलसाते ही रहे-
भर नहीं सके प्राण रूप-विन्दु-दान से।
तब तुम लघुपद-विहार
अनिल ज्यों बार-बार

वक्ष के सजे तार झंकृत करने लगे
साँसों से, भावों से, चिन्ता से कर प्रवेश।
अपने उस गीत पर
सुखद मनोहर उस तान का माया में,
लहरों में हृदय की
भूल-सी मैं गयी
संसृति के दुःख-घात,
श्लथ-गात, तुममें ज्यों
रही मैं बद्ध हो।

किन्तु हाय,
रूढ़ि, धर्म के विचार,
कुल, मान, शील, ज्ञान,
उच्च प्राचीर ज्यों घेरे जो थे मुझे,
घेर लेते बार-बार,
जब मैं संसार में रखती थी पदमात्र,
छोड़ कल्प-निस्सीम पवन-विहार मुक्त।
दोनों हम भिन्न-वर्ण,
भिन्न-जाति, भिन्न-रूप,
भिन्न-धर्मभाव, पर
केवल अपनाव से, प्राणों से एक थे।

किन्तु दिन रात का,
जल और पृथ्वी का
भिन्न सौन्दर्य से बन्धन स्वर्गीय है
समझे यह नहीं लोग
व्यर्थ अभिमान के !
अन्धकार था हृदय
अपने ही भार से झुका हुआ, विपर्यस्त।
गृह-जन थे कर्म पर।
मधुर प्रात ज्यों द्वार पर आये तुम,
नीड़-सुख छोड़कर मुझे मुक्त उड़ने को संग
किया आह्वान मुझे व्यंग के शब्द में।

आयी मैं द्वार पर सुन प्रिय कण्ठ-स्वर,
अश्रुत जो बजता रहा था झंकार भर
जीवन की वीणा में,
सुनती थी मैं जिसे।
पहचाना मैंने, हाथ बढ़ाकर तुमने गहा।
चल दी मैं मुक्त, साथ।
एक बार की ऋणी
उद्धार के लिए,
शत बार शोध की उर में प्रतिज्ञा की।

पूर्ण मैं कर चुकी।
गर्वित, गरीयसी अपने में आज मैं।
रूप के द्वार पर
मोह की माधुरी
कितने ही बार पी मूर्च्छित हुए हो, प्रिय,
जागती मैं रही,
गह बाँह, बाँह में भरकर सँभाला तुम्हें।