भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बसन्त-7 / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=नज़ीर अकबराबादी  
 
|रचनाकार=नज़ीर अकबराबादी  
 
|संग्रह=
 
|संग्रह=
}}
+
}}{{KKAnthologyBasant}}
 
{{KKCatNazm}}
 
{{KKCatNazm}}
 
<Poem>
 
<Poem>
हर एक गुलबदन ने मनाई बसन्त।।
+
फिर आलम में तशरीफ लाई बसंत।
तवायफ़ ने हरजाँ उठाई बसन्त।
+
हर एक गुलबदन ने मनाई बसंत॥
इधर औ’ उधर जगमगाई बसन्त।।
+
तबायफ़ ने हरजां उठाई बसंत।
::हमें फिर ख़ुदा ने इखाई बसन्त ।।1।।
+
इधर और उधर जगमगाई बसंत॥
 +
हमें फिर खुदा ने दिखाई बसंत॥1॥
  
 
मेरा दिल है जिस नाज़नी पर फ़िदा।
 
मेरा दिल है जिस नाज़नी पर फ़िदा।
वह काफ़िर भी जोड़ा बसन्ती बना।।
+
वह काफ़िर भी जोड़ा बसंती बना॥
सरापा वह सरसों का बन खेत-सा।
+
सरापा वह सरसों का बने खेत सा।
वह नाज़ुक से हाथों से गड़ुवा उठा।।
+
वह नाजु़क से हाथों से गडु़वा उठा॥
::अज़ब ढंग से मुझ पास लाई बसन्त ।।2।।
+
अ़जब ढंग से मुझ पास लाई बसंत॥2॥
  
वह कुर्ती बसन्ती वह गेंदे के हार।
+
सह कुर्ती बसंती वह गेंदे के हार।
वह कमख़्वाब का ज़र्द काफ़िर इज़ार।।
+
वह कमख़्वाब का ज़र्द काफ़िर इजार॥
 
दुपट्टा फिर ज़र्द संजगाफ़दार।
 
दुपट्टा फिर ज़र्द संजगाफ़दार।
जो देखी मैं उसकी बसन्ती बहार।।
+
जो देखी मैं उसकी बसंती बहार॥
::तो भूली मुझे याद आई बसत  ।।3।।
+
तो भूली मुझे याद आई बसंत॥3॥
  
 
वह कड़वा जो था उसके हाथों में फूल।
 
वह कड़वा जो था उसके हाथों में फूल।
गया उसकी पोशाक को देख भूल।।
+
गया उसकी पोशाक को देख भूल॥
कि इस्लाम तू अल्लाह ने कर कबूल।
+
कि इस्लाम तू अल्लाह ने कर कबूल॥
::निकाला इसे और छिपाई बसन्त ।।4।।
+
निकाला इसे और छिपाई बसंत॥4॥
  
 
वह अंगिया जो थी ज़र्द और जालदार।
 
वह अंगिया जो थी ज़र्द और जालदार।
टँकी ज़र्द गोटे की जिस पर कतार।।
+
टकी ज़र्द गोटे की जिस पर कतार॥
वह जो दर्द लेमू को देख आश्कार।
+
वह दो ज़र्द लेमू को देख आश्कार।
ख़ुशी होके सीने में दिल एक बार।।
+
ख़ुशी होके सीने में दिल एक बार॥
::पुकारा कि अब मैंने पाई बसन्त ।।5।।
+
पुकारा कि अब मैंने पाई बसंत॥5॥
  
वह जोड़ा बसन्ती जो था ख़ुश अदा।
+
वह जोड़ा बसंती जो था खुश अदा।
झमक अपने आलम की उसमें दिखा।।
+
झमक अपने आलम की उसमें दिखा॥
उठा आँख औ’ नाज़ से मुस्करा।
+
उठा आंख औ नाज़ से मुस्करा।
कहा लो मुबारक हो दिन आज का।।
+
कहा लो मुबारक हो दिन आज का॥
::कि याँ हमको लेकर है आई बसन्त ।।6।।
+
कि यां हमको लेकर है आई बसंत॥6॥
  
 
पड़ी उस परी पर जो मेरी निगाह।
 
पड़ी उस परी पर जो मेरी निगाह।
तो मैं हाथ उसके पकड़ ख़्वामख़्वाह।।
+
तो मैं हाथ उसके पकड़ ख़्वामख़्वाह॥
 
गले से लिपटा लिया करके चाह।
 
गले से लिपटा लिया करके चाह।
लगी ज़र्द अंगिया जो सीने से आह।।
+
लगी ज़र्द अंगिया जो सीने से आह॥
::तो क्या-क्या जिगर में समाई बसन्त ।।7।।
+
तो क्या क्या जिगर में समाई बसंत॥7॥
  
वह पोशाक ज़र्द और मुँह चांद-सा।
+
वह पोशाक ज़र्द और मुंह चांद सा।
वह भीगा हुआ हुस्न ज़र्दी मिला।।
+
वह भीगा हुआ हुस्न ज़र्दी मिला॥
फिर उसमें जो ले साज़ खींची सदा।
+
फिर उसमें जो ले साज़ खीची सदा।
समाँ छा गया हर तरफ़ राग का।।
+
समां छा गया हर तरफ राग का॥
::इस आलम से काफ़िर ने गाई बसन्त ।।8।।
+
इस आलम से काफ़िर ने गाई बसंत॥8॥
  
बंधा फिर वह राग बसन्ती का तार।
+
बंधा फिर वह राग बसंती का तार।
हर एक तान होने लगी दिल के पार।।
+
हर एक तान होने लगी दिल के पार॥
वह गाने की देख उसकी उसदम बहार।
+
वह गाने की देख उसकी उस दम बहार।
हुई
+
हुई ज़र्द दीवारोदर एक बार॥
 +
गरज़ उसकी आंखों में छाई बसंत॥9॥
  
 +
यह देख उसके हुस्न और गाने की शां।
 +
किया मैंने उससे यह हंसकर बयां॥
 +
यह अ़ालम तो बस खत्म है तुम पै यां।
 +
किसी को नहीं बन पड़ी ऐसी जां॥
 +
तुम्हें आज जैसी बन आई बसंत॥10॥
  
 +
यह वह रुत है देखो जो हर को मियां।
 +
बना है हर इक तख़्तए जअ़फिरां॥
 +
कहीं ज़र, कहीं ज़र्द गेंदा अयां।
 +
निकलते हैं जिधर बसंती तबां॥
 +
पुकारे हैं ऐ वह है आई बसंत॥11॥
  
 
+
बहारे बसंती पै रखकर निगाह।
 
+
बुलाकर परीज़ादा और कज कुलाह॥
 +
मै ओ मुतरिब व साक़ी रश्कमाह।
 +
सहर से लगा शाम तक वाह वाह॥
 +
”नज़ीर“ आज हमने मनाई बसंत॥12॥
 
</poem>
 
</poem>
 +
{{KKMeaning}}

14:01, 19 जनवरी 2016 के समय का अवतरण

फिर आलम में तशरीफ लाई बसंत।
हर एक गुलबदन ने मनाई बसंत॥
तबायफ़ ने हरजां उठाई बसंत।
इधर और उधर जगमगाई बसंत॥
हमें फिर खुदा ने दिखाई बसंत॥1॥

मेरा दिल है जिस नाज़नी पर फ़िदा।
वह काफ़िर भी जोड़ा बसंती बना॥
सरापा वह सरसों का बने खेत सा।
वह नाजु़क से हाथों से गडु़वा उठा॥
अ़जब ढंग से मुझ पास लाई बसंत॥2॥

सह कुर्ती बसंती वह गेंदे के हार।
वह कमख़्वाब का ज़र्द काफ़िर इजार॥
दुपट्टा फिर ज़र्द संजगाफ़दार।
जो देखी मैं उसकी बसंती बहार॥
तो भूली मुझे याद आई बसंत॥3॥

वह कड़वा जो था उसके हाथों में फूल।
गया उसकी पोशाक को देख भूल॥
कि इस्लाम तू अल्लाह ने कर कबूल॥
निकाला इसे और छिपाई बसंत॥4॥

वह अंगिया जो थी ज़र्द और जालदार।
टकी ज़र्द गोटे की जिस पर कतार॥
वह दो ज़र्द लेमू को देख आश्कार।
ख़ुशी होके सीने में दिल एक बार॥
पुकारा कि अब मैंने पाई बसंत॥5॥

वह जोड़ा बसंती जो था खुश अदा।
झमक अपने आलम की उसमें दिखा॥
उठा आंख औ नाज़ से मुस्करा।
कहा लो मुबारक हो दिन आज का॥
कि यां हमको लेकर है आई बसंत॥6॥

पड़ी उस परी पर जो मेरी निगाह।
तो मैं हाथ उसके पकड़ ख़्वामख़्वाह॥
गले से लिपटा लिया करके चाह।
लगी ज़र्द अंगिया जो सीने से आह॥
तो क्या क्या जिगर में समाई बसंत॥7॥

वह पोशाक ज़र्द और मुंह चांद सा।
वह भीगा हुआ हुस्न ज़र्दी मिला॥
फिर उसमें जो ले साज़ खीची सदा।
समां छा गया हर तरफ राग का॥
इस आलम से काफ़िर ने गाई बसंत॥8॥

बंधा फिर वह राग बसंती का तार।
हर एक तान होने लगी दिल के पार॥
वह गाने की देख उसकी उस दम बहार।
हुई ज़र्द दीवारोदर एक बार॥
गरज़ उसकी आंखों में छाई बसंत॥9॥

यह देख उसके हुस्न और गाने की शां।
किया मैंने उससे यह हंसकर बयां॥
यह अ़ालम तो बस खत्म है तुम पै यां।
किसी को नहीं बन पड़ी ऐसी जां॥
तुम्हें आज जैसी बन आई बसंत॥10॥

यह वह रुत है देखो जो हर को मियां।
बना है हर इक तख़्तए जअ़फिरां॥
कहीं ज़र, कहीं ज़र्द गेंदा अयां।
निकलते हैं जिधर बसंती तबां॥
पुकारे हैं ऐ वह है आई बसंत॥11॥

बहारे बसंती पै रखकर निगाह।
बुलाकर परीज़ादा और कज कुलाह॥
मै ओ मुतरिब व साक़ी रश्कमाह।
सहर से लगा शाम तक वाह वाह॥
”नज़ीर“ आज हमने मनाई बसंत॥12॥

शब्दार्थ
<references/>