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− | <div class='box' style="background-color:#DD5511;width:100%; align:center"><div class='boxtop'><div></div></div> | + | <div style="background:#eee; padding:10px"> |
− | <div class='boxheader' style='background-color:#DD5511; color:#ffffff'></div> | + | <div style="background: transparent; width:95%; height:450px; overflow:auto; border:0px inset #aaa; padding:10px"> |
− | <div id="kkHomePageSearchBoxDiv" class='boxcontent' style='background-color:#FFF3DF;border:1px solid #DD5511;'>
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− | <!----BOX CONTENT STARTS------>
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− | <table width=100% style="background:transparent">
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− | <tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png]]</td>
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− | <td rowspan=2> <font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
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− | <td> '''शीर्षक: '''मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको <br>
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− | '''रचनाकार:''' [[अदम गोंडवी]]</td>
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− | </tr>
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− | <pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none"> | + | <div style="font-size:120%; color:#a00000; text-align: center;"> |
− | आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
| + | खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार</div> |
− | मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
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− | जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
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− | मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर
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− | है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
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− | आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
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− | चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
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− | मैं इसे कहता हूँ सरजूपार की मोनालिसा
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− | कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
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− | लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
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− | कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
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− | जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
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− | थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
| + | <div style="text-align: center;"> |
− | सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
| + | रचनाकार: [[त्रिलोचन]] |
− | डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
| + | </div> |
− | घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
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− | आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
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− | क्या पता उसको कि कोई भेड़ि़या है घात में
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− | होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
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− | मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
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− | चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
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− | छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई
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− | दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
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− | वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
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− | और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
| + | <div style="background: #fff; border: 1px solid #ccc; box-shadow: 0 0 10px #ccc inset; font-size: 16px; margin: 0 auto; padding: 0 20px; white-space: pre;"> |
− | होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
| + | खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार |
− | जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
| + | अपरिचित पास आओ |
− | जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
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− | बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
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− | पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
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− | कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
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− | कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
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− | कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
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− | और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
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− | बोला कृष्ना से- बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
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− | बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
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− | पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
| + | आँखों में सशंक जिज्ञासा |
− | वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
| + | मिक्ति कहाँ, है अभी कुहासा |
− | दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
| + | जहाँ खड़े हैं, पाँव जड़े हैं |
− | देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
| + | स्तम्भ शेष भय की परिभाषा |
− | क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
| + | हिलो-मिलो फिर एक डाल के |
− | कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
| + | खिलो फूल-से, मत अलगाओ |
− | कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
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− | सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
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− | देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां
| + | सबमें अपनेपन की माया |
− | पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहां
| + | अपने पन में जीवन आया |
− | जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
| + | </div> |
− | हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है
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− | भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
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− | फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
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− | आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
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− | जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
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− | वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
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− | वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
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− | जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
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− | हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
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− | कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
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− | गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी´
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− | बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
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− | हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
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− | क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
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− | हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था
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− | रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
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− | भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
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− | सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
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− | एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
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− | घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
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− | `जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने´
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− | निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
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− | एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
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− | गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
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− | सुन पड़ा फिर `माल वो चोरी का तूने क्या किया´
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− | `कैसी चोरी माल कैसा´ उसने जैसे ही कहा
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− | एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
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− | होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
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− | ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
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− | `मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
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− | आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो´
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− | और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
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− | बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
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− | दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
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− | वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
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− | घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
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− | कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे
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− | ´´ कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
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− | हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं ´´
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− | यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
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− | आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
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− | फिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
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− | ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा"
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− | इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ दें
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− | होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
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− | बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दो
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− | होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
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− | ये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल है
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− | ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है"
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− | पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
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− | `कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल´
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− | उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
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− | सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
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− | धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
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− | प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
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− | मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
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− | तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
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− | गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
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− | या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
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− | हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
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− | बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !
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