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बेरौनक और बदरंग। | बेरौनक और बदरंग। | ||
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01:31, 24 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
विज्ञापनों के बाहर भी
एक दुनिया है बच्चों की
उदास औए मायूस।
विज्ञापनों के बाहर भी
एक दुनिया है टाँगों और बाँहों की
काँपती और थरथराती हुई।
विज्ञापनों के बाहर भी
एक दुनिया है आवाज़ों की
लरजती और घुटती हुई।
विज्ञापनों के बाहर भी
एक दुनिया है सपनो की
बेरौनक और बदरंग।
रचनाकाल : 1991, नई दिल्ली